प्रवाल भित्तियों के प्रकार || Kinds of coral reefs

प्रवाल भित्तियों के प्रकार 

Kinds of coral reefs

प्रवाल भित्तियों के निर्माण अनुसार ये तीन प्रकार की होती हैं

1. झालरदार भित्तियाँ (Fringing reefs)-

    वे प्रवाल भित्तियाँ, जो किसी ज्वालामुखी द्वीप या किसी महाद्वीप के तटों के निकट होती है, झालरदार-भित्तियाँ (fringing reefs) कहलाती हैं। एक झालरदार भित्ति तट से लगभग 400 मीटर दूर तक समद्र में फैली होती है। प्रवाल वृद्धि का अत्यन्त सक्रिय भाग समुद्र की ओर होता है। समुद्र की ओर होने वाले भाग को इसका तट (edge) या फ्रंट (front) कहते हैं। समुद्र तट एवं झालरदार भित्ति के बीच एक 50 से 100 मीटर चौड़ा उथले जल का चैनल (channel) होता है। निम्न ज्वार के समय जब चैनल का जल पीछे हटता है तो समुद्र की तली की चपटी सतह दिखाई देने लगती है, जिसे भित्ति अंचल (reef flat) कहते हैं। यह भित्ति मुख्यतः प्रवाल, वालू, मिट्टी, मृत एवं जीवित प्रवाल निवहों और अन्य जन्तुओं की बनी होती हैं। 

2. बैरियर भित्ति-(Barrier reef)-

    ये भित्तियाँ भी झालरदार भित्तियों की भाँति ही होती हैं परन्तु तट से कुछ दूरी पर होती हैं। बैरियर भित्ति को मुख्य भूमि से पृथक् करने वाले जल की चौड़ाई लगभग 800 मीटर से 16 किमी तक हो सकती है जिसे लैगून (lagoon) कहते हैं। यह 20 से 100 मीटर तक गहरा होता है और इसमें जलयान चल सकते हैं।

    आस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ (Great Barrier reef) इसी प्रकार की भित्ति का सबसे अच्छा उदाहरण है। यह लगभग 2,000 किमी लम्बी है तथा तट से लगभग 150 किमी दूर तक फैली है।

3. ऐटोल (Atoll)-

    ऐटोल को एक प्रवाल द्वीप (coral island) या लैगून द्वीप (lagoon island) भी कहा जाता है। यह एक वृत्त या घोड़े की नाल के आकार की भित्ति होती है, जो एक द्वीप के चारों ओर न होकर लैगून के चारों ओर बन जाती है। लैगून कुछ किमी से 90 किमी तक चौड़ा होता है। यह चारों ओर से पूर्णतः बन्द या कहीं कहीं पर जल मार्गों द्वारा टूटी हो सकती है, जिनमें से कुछ में जलयान चलाए जा सकते हैं। इस भित्ति का बाहरी सिरा समुद्र की तली तक धीरे-धीरे ढालू होता है।

परमाणु एवं हाइड्रोजन बमों के परीक्षण हेतु विख्यात बिकाइन (Bikine) नामक ऐटोल पैसिफिक महासागर में स्थित है।

(III) प्रवाल-भित्तियों का बनना (Formation f coral reefs)-

    प्रवाल-भित्तियों के बनने के विषय में अनेक सिद्धान्त बताए बने हैं, परन्तु कोई भी पूर्णतः सन्तोष जनक नहीं है। इनमें से दो सिद्धान्त कुछ अधिक तर्क-संगत एवं महत्व के प्रतीत होते हैं। 

1. डार्विन का निमग्न-सिद्धान्त (Subsidence theory of Darwin)-

यह सिद्धान्त 1831 में डार्विन (Darwin) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। इसके अनुसार सबसे पहले एक द्वीप के ढालू तट पर झालर-भित्ति का निर्माण हुआ था। समुद्र की तली के बैठ जाने से प्रवाल ऊपर तथा बाहर वृद्धि करने लगे और इस प्रकार झालर-भित्ति बैरियर भित्ति में बदल गई। इसक पश्चात् द्वीप के धीरे-धीरे डूबने और अन्त में द्वीप,, अदृश्य हो जाने पर केन्द्रीय लैगून सहित ऐटोल बन गया और समय के साथ इस पर वनस्पति उग आई।

2. डाली का हिमशैली नियन्त्रण सिद्धान्त (Glacial-control theory by Daly)-

डाली (Daly) द्वारा प्रस्तुत किए गए क अन्य सिद्धान्त के अनुसार हिम-शैली निर्माण के लिए जल पीछे जाने लगा जिससे महासागर का जल स्तर नीचा हो गया जिसके फलस्वरूप लहरों की क्रिया से कटे हुए अनेक चपटे मंच बाहर दिखाई देने लगे। जब हिम-शैल पिछले और तापमान अनुकूल हुआ तो प्रवाल इन मंचों पर उगने लगे और इस प्रकार समुद्र के जल के स्तर से भी ऊँचे उठते गये।

अधिकांश भित्तियाँ 10 से 200 मिमी प्रति वर्ष की दर से वृद्धि करती है। वर्तमान में मिलने वाली भित्तियों में से अधिकतर 15,000 से 30,000 वर्षों में बनी हैं।

(IV) प्रवाल-भित्तियों का आर्थिक महत्त्व (Economic importance of coral reefs)-

    अति प्राचीन भौगोलिक काल के प्रवालों ने पेट्रोलियम इकट्ठा होने के अत्यन्त अनुकूल स्थानों पर भित्ति संरचनाओं का निर्माण किया, अत: प्रवाल भित्तियाँ तेल उद्योग के लिए अति महत्वपूर्ण है। प्रवालों की क बड़ी मात्रा प्रति वर्ष अलौकिक व्यापार हेतु दूर-दूर भेजी जाती है। प्रवाल भित्तियाँ बहुत से पौधों और जन्तुओं जैसे स्पंज, मोलस्क, एकाइनोडर्म, मछलियों, इत्यादि के लिए रहने का आवास बना हैं। कुछ प्रवाल भित्तियाँ तो मनुष्य द्वारा भी आवास के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। अपने अलंकारिक प्रयोग के कारण कुछ प्रवाल अत्यन्त मूल्यवान होते हैं। कोरेलम रुब्रम (Corollum rubrum) को भारत और चीन में मूल्यवान एवं भाग्यवान पत्थर समझा जाता है। दक्षिण भारत में लाल प्रवाल और पाइप प्रवाल को औषधि के कुछ देशज (देशी) तन्त्र की भाँति प्रयोग करते हैं। पोराइटीज (Porties) जाति के प्रवाल कंकाल के विखण्डों को भवन-निर्माण में प्रयोग किया जाता है। प्रवाल कंकालों में कैल्सियम कार्बोनेट तथा मैग्नीशियम कार्बोनेट होने के कारण उन्हें चूना, मोर्टार (mortar) और सीमेन्ट बनाने के लिए कच्ची सामग्री की भाँति प्रयोग किया जाता है। प्रवाल कंकाल समुद्र तट के निकट ऐसे कटक (ridges) बनाने में भी सहायक होते हैं, जो प्राकृतिक बाँध (barriers) की भाँति तट कटावा तथा चक्रवाती तूफानों (cyclonic storms) से तट की रक्षा करते हैं। - व्यापारिक महत्व की मछलियों के लिए प्रवाल भित्तियाँ एक अच्छे पोषण स्थल का कार्य करती हैं। प्रवाल-भित्ति की मछलियाँ अन्य मछलियों की अपेक्षा विविध आकर्षक रंगों की होती है।
Kkr Kishan Regar

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