जैव विविधता
जैव-विविधता (Biodiversity)
- पृथ्वी पर पाई
जाने वाले जीवों की विभिन्नता, विषमता एवं
पारिस्थितिकी की जटिलता ‘जैव-विविधता’ कहलाती है।
- जैव-विविधता शब्द
का प्रयोग ‘रोजेन’ द्वारा किया गया।
- राष्ट्रीय
जैव-विविधता प्राधिकरण चेन्नई में स्थित है।
जैव-विविधता का वितरण ̵
- भूमध्य रेखा के
आस-पास जैव-विविधता सबसे अधिक पाई जाती है जबकि ध्रुवों पर जैव-विविधता न्यूनतम
होती है।
- भूमध्य रेखा से
ध्रुवों की ओर जाने पर जैव-विविधता कम होती जाती है।
Note –
- पर्वतों के शिखर
से नीचे की ओर जाने पर तथा ध्रुवों से भूमध्य रेखा की ओर जाने पर जैव-विविधता में
परिवर्तन होता है, जिसे
‘जैव-विविधता-प्रवणता’ कहा जाता है।
- विश्व में
ब्राजील की जैव-विविधता सर्वाधिक है।
- भारत भी
जैव-विविधता की दृष्टि से एक संपन्न राष्ट्र है।
- प्रवाल क्षेत्र,
अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, दलदली क्षेत्र, भूमध्य रेखा के आस-पास के क्षेत्रों की जैव-विविधता अधिक
होती है।
- ध्रुवीय क्षेत्र,
उपध्रुवीय क्षेत्र, मरुस्थलीय क्षेत्र, कम वर्षा वाले क्षेत्रों आदि की जैव-विविधता अपेक्षाकृत कम होती है।
जैव-विविधता का मापन तीन प्रकार से किया जाता है ̵
1. एल्फा-जैव-विविधता
2. बीटा-जैव-विविधता
3. गामा-जैव-विविधता
एल्फा-जैव-विविधता
- किसी स्थान-विशेष
या क्षेत्र-विशेष में पाई जाने वाली जैव-विविधता, ‘एल्फा जैव विविधता’ कहलाती है।
बीटा-जैव-विविधता
- वृहद् स्तर पर
पाई जाने वाली जैव-विविधता ‘बीटा-जैव-विविधता’ कहलाती है।
गामा-जैव-विविधता
- वैश्विक स्तर पर
पाई जाने वाली जैव-विविधता ‘गामा-जैव-विविधता’ कहलाती है।
Note –
- अमेजन वर्षा वनों
की जैव-विविधता विश्व में सर्वाधिक है।
- अमेजन वर्षा वनों
को ‘पृथ्वी के फेफड़े’ भी कहा जाता है।
जैव-विविधता के नष्ट होने के प्रमुख कारण–
1. जीवों के प्राकृतिक आवासों का नष्ट होना
- मनुष्य द्वारा
वनों की कटाई से वन क्षेत्रों में लगातार कमी देखी जा सकती है। वन क्षेत्र कम होने
से जीवों को भोजन, आवास एवं प्रजनन
हेतु स्थान नहीं मिल पाने से जीवों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। प्राकृतिक
आवासों के नष्ट होने से जीवों में आपसी संघर्ष से भी संख्या कम हो रही है।
Note –
- राजस्थान में
गिद्धों के विलुप्त होने का प्रमुख कारण ‘डाईक्लोफिनेक’ (Diclofenac) नामक दर्दनिवारक दवाई है।
- डाईक्लोफिनेक के
कारण कैल्सियम-उपापचय प्रभावित होता है, जिससे अण्डों का बाहरी आवरण, जो
‘कैल्सियम-कार्बोनेट’ का बना होता है, कमजोर हो जाता है, जिससे अण्डे समय
से पूर्व ही फूट जाते हैं एवं नए गिद्ध नहीं पनप पाते हैं।
- यह जैव-विविधता
के नष्ट होने का सबसे प्रमुख कारण माना जाता है।
2. जलवायु परिवर्तन
- जलवायु-परिवर्तन
के कारण बहुत-सी जीवों की प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं।
3. प्रदूषण
- वायु-प्रदूषण तथा
जल-प्रदूषण के कारण जीवों की विभिन्न प्रजातियाँ प्रभावित हुई हैं।
4. विदेशी-प्रजातियाँ
- बहुत-सी विदेशी
प्रजातियाँ स्थानीय प्रजातियों के लिए खतरा बन चुकी है।
- जलकुंभी, जिसे सजावटी-पौधे के रूप में भारत लाया गया था,
आज स्थानीय प्रजातियों के लिए खतरा बन चुकी है।
- इसी तरह लेंटेना
भी विदेशी प्रजाति है, जो स्थानीय
प्रजातियों के लिए खतरा बन चुकी है।
5. जीन उपचारित बीज
- बैसीलस
थूरेनजेनेसिस जीवाणु मृदा में पाए जाते हैं।
- विभिन्न प्रकार
की जीन उपचारित फसलों के प्रयोग से भी जैव-विविधता नष्ट हो रही है।
- जैसे Bt फसलें, जो कि कीटरोधी फसलें होती हैं, इनके उपयोग से
अनेक कीट प्रभावित हुए हैं।
- जैसे Bt-कपास के कारण ‘बॉलवॉर्म’ जैसे कीट सर्वाधिक
प्रभावित हुए हैं।
6. अत्यधिक-शिकार
- जिस प्रजाति का
अधिक शिकार किया जाएगा वह प्रजाति जल्दी संकटग्रस्त होगी।
- हाथी दाँत,
खाल, सींग आदि की तस्करी के कारण भी जीवों का शिकार किया जा रहा है।
जैसे- मॉरीशस में डोडो पक्षी विलुप्त हो चुका
है।
7. विभिन्न प्रकार के रसायन
- रसायनों के
कीटनाशकों, दवाइयों आदि के रूप में
बढ़ते प्रयोग से भी अनेक प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं।
जैसे डाईक्लोफिनेक दर्दनिवारक दवाई के बढ़ते
प्रयोग से राजस्थान में गिद्ध तेजी से विलुप्त हो रहे हैं।
जैव-विविधता के प्रकार–
- जैव-विविधता
मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं ̵
1. आनुवंशिक
जैव-विविधता
2. प्रजातीय जैव-विविधता
3. पारिस्थितिकी
जैव-विविधता
आनुवंशिक जैव-विविधता
- आनुवंशिक स्तर पर
पाई जाने वाली जैव-विविधता, आनुवंशिक
जैव-विविधता कहलाती है।
जैसे ̵ गेहूँ की दो किस्मों के मध्य पाई जाने वाली विभिन्नता।
प्रजातीय-जैव-विविधता
- विभिन्न
प्रजातियों के मध्य पाई जाने वाली-विभिन्नता, प्रजातीय जैव-विविधता कहलाती है।
जैसे- पश्चिम घाट के उभयचरों तथा पूर्वी घाट के
उभयचरों के मध्य पाई जाने वाली कोशिका।
पारिस्थितिकी जैव-विविधता
- जीव जिस भौगोलिक
क्षेत्र में रहता है, तो उस क्षेत्र
में रहने हेतु उस जीव में अनेक विशेषताएँ पाई जाती हैं, जो उसे अन्य क्षेत्र की प्रजाति से भिन्न बनाती है तथा उस
क्षेत्र में जीवित रहने हेतु आवश्यक होती हैं।
- विभिन्न
पारिस्थितिकी तंत्रों के मध्य पाई जाने वाली विभिन्नता, पारिस्थितिकी जैव-विविधता कहलाती है।
जैसे घास के मैदानों में पाई जाने वाली
प्रजातियों तथा मरुस्थल में पाई जाने वाली प्रजातियों के मध्य विभिन्नता।
जैव-विविधता दिवस
- प्रथम जैव
विविधता दिवस वर्ष 1993 में मनाया गया
है।
- वर्ष 1993 से 2000 तक 29 दिसंबर को
‘जैव-विविधता दिवस’ मनाया जाता था।
- लेकिन वर्ष 2001 से वर्तमान तक 22 मई को ‘जैव-विविधता दिवस’ मनाया जाता है।
- जैव-विविधता दिवस
मनाने का मुख्य उद्देश्य लोगों में जैव-विविधता के प्रति जागरूकता फैलाना है।
- जैव-विविधता दिवस
2021 अर्थात् 22 मई, 2021 के ‘जैव-विविधता दिवस’ की थीम- ‘हम समाधान का हिस्सा है’ (We
are part of solution) रखी गई।
- वर्ष 2010 को ‘अन्तर्राष्ट्रीय जैव-विविधता वर्ष’ के रूप
में मनाया गया।
- वर्ष 2011 से 2020 तक ‘अन्तर्राष्ट्रीय जैव-विविधता-दशक’ के रूप में मनाया
गया।
W |
E |
B |
जल दिवस |
पृथ्वी दिवस |
जैव-विविधता
दिवस |
22 मार्च |
22 अप्रैल |
22 मई |
- ‘रियो-I सम्मेलन/पृथ्वी सम्मेलन’ जो कि वर्ष 1992 में रियो-डी-जेनेरिया (ब्राजील) में हुआ था।
- यह सम्मेलन
जैव-विविधता संबंधी पहला सम्मेलन था।
जैव-विविधता का संरक्षण–
- जैव-विविधता का
संरक्षण दो प्रकार से किया जाता है।
1. स्वस्थाने संरक्षण (इनसीटू-Insitu Conservation)
2. परस्थाने संरक्षण (एक्ससीटू- Exsitu Conservation)
1. स्वस्थाने संरक्षण
- संकटग्रस्त
प्रजातियों को उनके प्राकृतिक आवासों में ही रखते हुए, संरक्षण प्रदान करना, ‘स्वस्थाने संरक्षण’ कहलाता है।
- राष्ट्रीय उद्यान,
अभयारण्य, शिकार-प्रतिबंधित क्षेत्र, जैव-आरक्षित क्षेत्र (बायो स्फियर-रिजर्व), हॉट-स्पॉट इत्यादि ‘स्वस्थाने-संरक्षण’ के
अन्तर्गत आते हैं।
- ‘राष्ट्रीय
उद्यान’ केन्द्र-सरकार के नियंत्रण में होते हैं। अत: यहाँ पर जैव-विविधता के
संरक्षण का प्रयास केन्द्र-सरकार द्वारा किया जाता है।
- भारत में 100 से अधिक राष्ट्रीय-उद्यान हैं।
- अभयारण्य
राज्य-सरकार द्वारा घोषित किए जाते हैं तथा इन पर नियंत्रण राज्य-सरकार का होता
है।
- भारत में 500 से अधिक अभयारण्य हैं।
- शिकार-प्रतिबंधित
क्षेत्र में जीवों के शिकार पर प्रतिबंध लगाकर संरक्षण का प्रयास किया जाता है।
हॉट-स्पॉट (Hot-Spot)
- हॉट स्पॉट की
अवधारणा नॉर्मन-मेयर्स द्वारा दी गई।
- ‘हॉट स्पॉट’ को
‘संवेदनशील-क्षेत्र’ तथा ‘तप्त-स्थल’ भी कहा जाता है।
- हॉट स्पॉट ऐसे
स्थल होते हैं, जहाँ पर्याप्त
जैव-विविधता पाई जाती है, लेकिन संरक्षण के
प्रयास नहीं किए जाए तो यहाँ की जैव-विविधता संकटग्रस्त हो सकती है।
- प्रारंभ में
विश्व में 25 हॉट-स्पॉट घोषित किए गए।
- वर्तमान में
विश्व में 36 हॉट-स्पॉट घोषित किए गए
हैं।
भारत में कुल चार
हॉट-स्पॉट घोषित किए गए हैं-
1. पश्चिमी-घाट
2. पूर्वी-हिमालय
3. इण्डो-म्यांमार
4. सुण्डालैण्ड
- पश्चिमी घाट की
जैव-विविधता सर्वाधिक है, जहाँ भारत की कुल
जैव-विविधता की लगभग 50-60% जैव-विविधता पाई
जाती है।
- सुण्डालैण्ड की
जैव-विविधता सबसे कम है।
- राजस्थान में कोई
हॉट-स्पॉट नहीं है।
जैव-आरक्षित क्षेत्र
(बायो-स्फियर रिजर्व)
- यूनेस्को ने वर्ष
1971 में MAB (मैन एण्ड बायोस्फियर) प्रोग्राम प्रारंभ किया।
- मैन एण्ड
बायोस्फियर में लोगों की जीवों पर आजीविका निर्भरता को कम करके रोजगार के अन्य
साधन उपलब्ध करवाने पर बल दिया गया।
जैव-आरक्षित क्षेत्र को तीन भागों में बाँटा जा सकता है–
1. कोर-क्षेत्र
2. बफर-क्षेत्र
3. ट्रांजिट-क्षेत्र/हेरफेर-क्षेत्र
कोर-क्षेत्र
- यह जैव-आरक्षित
क्षेत्र का सबसे भीतरी भाग होता है।
- कोर क्षेत्र में
मानवीय-गतिविधियाँ पूरी तरह से प्रतिबंधित होती है, ताकि संकटग्रस्त प्रजातियों को प्राकृतिक आवास, सुरक्षा आदि उपलब्ध करवाई जा सके तथा इन्हें
मानवीय गतिविधियों से विचलित नहीं होना पड़े।
बफर-क्षेत्र
- यह कोर-क्षेत्र
के चारों ओर का क्षेत्र होता है।
- यहाँ अनुमति लेकर
मानवीय गतिविधियाँ की जा सकती हैं।
जैसे- अनुसंधान कार्य, शिक्षा इत्यादि गतिविधियाँ अनुमति लेकर बफर-क्षेत्र में की
जा सकती है।
ट्रांजिट क्षेत्र/हेरफेर क्षेत्र
- यह बफर क्षेत्र
के चारों ओर फैला होता है, अर्थात् यह
जैव-आरक्षित क्षेत्र का सबसे बाहरी भाग होता है।
- इस क्षेत्र में
पशु चराई, सूखी लकड़ियों की कटाई
जैसी गतिविधियाँ संपन्न होती हैं।
जैव-आरक्षित क्षेत्र
- भारत में कुल 18 जैव-आरक्षित क्षेत्र घोषित किए गए हैं।
- 18 जैव आरक्षित
क्षेत्रों में से 11 जैव आरक्षित
क्षेत्र यूनेस्को की धरोहर सूची में शामिल हैं।
भारत के प्रमुख जैव आरक्षित क्षेत्र
1. नीलगिरि – केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु
2. नोकरेक - मेघालय
3. नंदा देवी - उत्तराखण्ड
4. सिमली पाल - ओडिशा
5. पन्न – मध्य
प्रदेश
6. अण्डमान-निकोबार – अण्डमान-निकोबार
- राजस्थान में कोई
‘जैव-आरक्षित क्षेत्र’ घोषित नहीं किया गया है।
2. परस्थाने-संरक्षण
- संकटग्रस्त
प्रजातियों को अगर उनके प्राकृतिक आवासों में ही छोड़ दिया जाए तो उनके विलुप्त
होने का खतरा उत्पन्न हो सकता है, इसलिए इन्हें
अन्य स्थानों पर संरक्षण प्रदान किया जाता है।
- संकटग्रस्त-प्रजातियों
को उनके प्राकृतिक आवासों से ले जाकर अन्य स्थानों पर संरक्षण प्रदान करना,
‘परस्थाने संरक्षण’ कहलाता है।
- जीन बैंक,
चिड़ियाघर, जन्तु उद्यान, वानस्पतिक-उद्यान, बीज बैंक आदि
‘परस्थाने-संरक्षण’ के उदाहरण हैं।
- जीन बैंक में
संकटग्रस्त प्रजातियों के जीनों का संग्रहण किया जाता है।
- चिड़ियाघर में भी
अलग-अलग आवासों से लाई गई संकटग्रस्त प्रजातियों को संरक्षण प्रदान किया जाता है।
जैव-विविधता के संरक्षण हेतु कार्यरत संस्थान–
IUCN (International
Union For Conservation of Nature)
- IUCN की स्थापना वर्ष 1948 में की गई।
- IUCN का मुख्यालय
ग्लैण्ड (स्विट्जरलैण्ड) में है।
- IUCN जैव-विविधता के
संरक्षण हेतु कार्य करने वाला सबसे बड़ा तथा प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान है।
- IUCN द्वारा
‘रेड-डाटा-बुक’ का प्रकाशन किया जाता है।
- रेड डाटा बुक में
संकटग्रस्त प्रजातियों को दर्शाया जाता है।
- विलुप्त, प्राकृतिक आवासों से विलुप्त, सुभेद्य (Vulnerable) आदि में IUCN के द्वारा प्रजातियों का वर्गीकरण किया जाता है।
- जो प्रजाति
पृथ्वी से विलुप्त हो चुकी हो, वह विलुप्त
प्रजाति में आती है।
- प्राकृतिक आवासों
से विलुप्त प्रजातियाँ उनके प्राकृतिक आवासों से विलुप्त हो चुकी है, लेकिन अन्यत्र उनको संरक्षित किया जा रहा है।
सुभेद्य (Vulnerable) प्रजाति
- ऐसी प्रजाति जो
वर्तमान में तो पर्याप्त संख्या में है, लेकिन उनके संरक्षण के प्रयास नहीं किए जाए तो भविष्य में संकटग्रस्त हो सकती
है।
WWF (World Wide Fund
For Nature)
- WWF की स्थापना वर्ष 1961 में की गई।
- WWF का मुख्यालय
ग्लैण्ड (स्विट्जरलैण्ड) में है।
- अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर चल रही जैव-विविधता संरक्षण योजनाओं हेतु फण्ड उपलब्ध करवाने वाला प्रमुख
संस्थान है।
- WWF, IUCN का सहायक संस्थान
है।
- WWF का प्रतीक चिह्न
लाल-पांडा है।
- WWF की सहायता से
भारत में भी लाल-पांडा परियोजना चलाई जा रही है।
- ‘अर्थ ऑवर डे’ (Earth
Hour Day) का आयोजन भी प्रतिवर्ष
मार्च के अंतिम सप्ताह में WWF द्वारा किया जाता
है।
- ‘अर्थ ऑवर डे’ में
लगभग 1 घंटे तक शाम के समय
बिजली बंद रखी जाती है, ताकि प्रत्येक
व्यक्ति पर्यावरण के संरक्षण अपना योगदान दे सकें।
TRAFFIC (Trade
Records Analysis of Flora and Fauna)
- इसकी स्थापना IUCN
तथा WWF के सहयोग से की गई।
- TRAFFIC का मुख्यालय
कैम्ब्रिज (U.K.) में है।
TRAFFIC का प्रमुख कार्य:
- अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर जानवरों, पादपों आदि के
विभिन्न अंगों, उत्पादों जैसे
हाथी दाँत, खाल, सींग आदि की तस्करी पर निगरानी रखना है।
जैव-विविधता का महत्त्व :
1. पारिस्थितिकी
तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में जैव विविधता सहायक है।
2. जैव विविधता आहार
से लेकर औषधि तक का आधार होती है।
3. यह लोगों की
आजीविका का आधार है।
4. यह हमारी
संस्कृति, सभ्यता एवं विरासत का
आधार है।
जैव-विविधता के संरक्षण
हेतु भारत में चल रही प्रमुख योजनाएँ ̵
1. बाघ-परियोजना
2. हाथी-परियोजना
3. लाल-पांडा
परियोजना
4. ऑलिव-रिडले टर्टल
परियोजना
बाघ परियोजना (Tiger
Project)
- यह परियोजना
बाघों के संरक्षण हेतु वर्ष 1973 में प्रारंभ की
गई।
- यह परियोजना स्व.
कैलाश साँखला के प्रयासों से प्रारंभ की गई।
- स्व. कैलाश
साँखला को ‘टाइगर-मैन’ की संज्ञा दी गई है।
- यह परियोजना ‘जिम
कार्बेट-राष्ट्रीय उद्यान’ (उत्तराखण्ड) से प्रारंभ की गई।
- राजस्थान में भी
यह परियोजना चलाई जा रही है।
- इस परियोजना के
तहत ‘राष्ट्रीय-बाघ-प्राधिकरण’ की स्थापना की गई है।
हाथी-परियोजना (Elephant-Project)
- यह परियोजना
हाथियों को संरक्षण प्रदान करने के लिए वर्ष 1992 में प्रारंभ की गई।
- यह परियोजना
‘सिंहभूम जंतु उद्यान’ (झारखंड) से प्रारंभ की गई।
- यह परियोजना
राजस्थान में नहीं चलाई जा रही है।
Note :
MIKE (Monitoring the
Illegal Killing of Elephants)
- हाथियों के अवैध
शिकार को रोकने हेतु दक्षिण एशिया में चलाई गई योजना।
लाल-पांडा परियोजना
- यह परियोजना
लाल-पांडा के संरक्षण हेतु वर्ष 1996 से प्रारंभ की गई।
- यह परियोजना WWF
के सहयोग से चलाई जा रही है।
- यह परियोजना
‘पद्मजा नायडू हिमालयन राष्ट्रीय जंतु उद्यान’ दार्जिलिंग (प. बंगाल) से प्रारंभ
की गई।
ऑलिव रिडले टर्टल
परियोजना
- ‘ऑलिव रिडले‘ कछुए
की एक प्रजाति है।
- इस कछुए की पीठ
अत्यधिक कठोर होती है, अत: इसका उपयोग
‘शक्तिवर्धक’ दवाइयों के निर्माण में किया जाता है।
- इस कारण
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कछुए की इस प्रजाति की तस्करी की जाती है।
- तस्करी के कारण
इसकी संख्या बहुत कम रह गई है।
- अत: इसके संरक्षण
हेतु यह परियोजना वर्ष 1975 में ‘भीतर कणिका
जंतु-उद्यान’ ओडिशा से प्रारंभ की गई।