मानव परिसंचरण तंत्र
(Human Circulatory System)
रक्त (रुधिर) परिसंचरण तन्त्र
(Blood Circulation System)
रक्त परिसंचरण का अर्थ रक्त शरीर के प्रत्येक अंग में बराबर चक्कर लगाता रहता है। रक्त हृदय से निकलकर सारे अंग में दौरा करने के उपरान्त पुनः हृदय में लौट जाता है। अनुमानतः रक्त अपना एक पूरा चक्कर लगभग 25 सेकण्ड में ही लगा लेता है।
मनुष्य में रुधिर परिसंचरण तन्त्र |
रुधिर के सारे शरीर में चक्कर लगाने की इस क्रियाको रक्त परिसंचरण (Circulation of the Blood) कहते हैं, और वे अंग जो रक्त परिसंचरण की क्रिया में भाग लेते हैं रक्त परिसंचरण तन्त्र कहलाते हैं। रक्त परिसंचरण को जानने के लिए हृदय के बारे में जानना बहुत जरूरी है।
रक्त परिसंचरण के अंग
कशेरुकियों में रुधिर परिसंचरण तन्त्र बन्द प्रकार (closed type) का होता है, क्योंकि परिवहन माध्यम जिन नालिकाओं में बहता है, वे बन्द प्रकार की होती हैं और उन्हें रुधिर वाहिनियाँ (Blood vessels) कहते हैं। रुधिर वाहिनियों में परिवहन माध्यम अर्थात् रुधिर को लगातार पम्प करने का कार्य स्पंदशील हृदय (heart) करता है। इस तरह कशेरुकियों के रुधिर परिसंचरण तन्त्र को निम् भागों में बाँट सकते हैं
हृदय
मनुष्य का हृदय गहरे गुलाबी-लाल रंग का खोखला, पेशीय व शंक्वाकार (conical) संरचना होती है। यह वक्ष गुहा (छाती में दोनों फेफड़ों के बीच अधरतल पर स्थित होता है। इसका दो-तिहाई भाग अधर तत की मध्य रेखा से बायीं ओर फैला होता है। इसका आगे या ऊपरी वाला सिरा चौड़ा और पीछे या नीचे वाला सिरा संकरा होता है। हृदय के चौड़े भाग का आलिन्द भाग (auricular part) और संकरे भाग को नियल भाग (ventricular part) कहते हैं। आलिन्द भाग में हृदय का दायाँ व बायाँ आलिन्द (right and left auricle) वेश्म और निलय भाग में हृदय का दायाँ व बायाँ
हृदय की खड़ी काट |
निलय (right and left ventricle) वेश्म स्थित होते हैं। यह देहगुहा से पृथक् हदयावरणी गुहा (pericardial cavity) में एक थैली जैसी रचना के भीतर बन्द होता है। इस थैली को हृदयावरण (pericardium) कहते हैं। यह दो परत वाली संरचना होती है। इसकी बाह्य परत को पैराइटल पेरिकार्डियम (parietal pericardium) और अन्तः परत को विसरल पेरिकार्डियम (visceral pericardium) कहते हैं। इन दोनों परत के बीच एक संकरी-सी गुहा होती है, जिसे हृदयावरणी गुहा कहते हैं। हृदय इसी गुहा में स्थित होता है। यह गुहा एक लसलसे रंगहीन द्रव से भरी होती है, जिसे पेरिकार्डियल द्रव (pericardial fluid) कहते हैं। यह द्रव तथा हृदयावरण हृदय को बाहरी आघातों, कारकों व चोटों से सुरक्षा प्रदान करता है।
हृदय भित्ति (Heart Wall)
हृदय की दीवार काफी मोटी व पेशीय होती है। इसकी दीवार मुख्य रूप से हृदय पेशियों (cardiac muscles) की बनी होती है। संरचना के आधार पर इसमें तीन स्तर होते हैं-
बाहरी स्तर को एपिकार्डियम (epicardium), बीच के स्तर को मायोकार्डियम (myocardium) तथा भीतरी स्तर को एन्डोकार्डियम (endocardium) कहते हैं। इन तीनों स्तरों में मध्य स्तर सबसे मोटा व पेशीय होता है।
हृदय की आन्तरिक संरचना
मनुष्य का हृदय चार वेश्मों वाला होता है। इसमें अशुद्ध व शुद्ध दोनों ही प्रकार का रक्त आता है। लेकिन इसकी बनावट इस प्रकार से होती है कि हृदय में शुद्ध व अशुद्ध रक्त बिल्कुल भी मिश्रित नहीं होता है। हृदय के ऊपरी चौड़े भाग में दो वेश्म स्थित होते हैं। स्थिति के आधार पर एक को बायाँ आलिन्द (left auricle) और दूसरे को दायाँ आलिन्द (right auricle) कहते हैं। ये दोनों वेश्म एक अनुलम्ब पट (partition) द्वारा एक-दूसरे से अलग होते हैं। इस पट को अन्तरा आलिन्द पट कहा जाता है। दायें आलिन्द में एक बड़ा छेद होता है, जिसमें ऊर्ध्व महाशिरा और निम्न महाशिरा आकर खुलती है। आलिन्द की अन्दरूनी दीवार पर इस छेद के पास एक विशेष प्रकार की घुण्डी जैसी रचना होती है, जिसे साइनो-ऑरिकुलर नोड कहा जाता है। इसकी संरचना के कारण हृदय में संकुचन की क्रिया शुरु करते हैं। अतः इसे हृदय की गति निर्धारक या पेस मैकर कहा जाता है। हृदय के निचले संकरे भाग में दो वेश्म होते हैं। स्थिति के आधार पर इनमें से एक ओर बायाँ निलय और दूसरे को दायाँ निलय कहा गया है। आलिन्द की तरह यह श्लेष्म भी एक अनुलम्ब पेशीय तट से अलग होते हैं। इसे आन्तरानिलय पट कहा जाता है। दोनों निलय की दीवार आलिन्दों की तुलना में काफी मोटी तथा पेशीय होती हैं। इनकी अन्दरूनी सतह पर अति विकसित वलने अथवा खाँचें होती हैं। दोनों निलय रुधिर के वितरण का काम करते हैं, इसी कारण इनकी दीवार ज्यादा मोटी होती है। आलिन्द अंगों से रुधिर को प्राप्त करके निलयों में भेजते हैं। इसी कारण इनकी दीवार पतली होती है।
हृदय के कपाट—
मनुष्य-हृदय में कई कपाट होते हैं। इन कपाटों का खुलना व बन्द होना इनके दोनों ओर रुधिर दबाव के अन्तर पर निर्भर करता है। ये हमेशा उच्च दबाव से कम दबाव वाले भाग की ओर खुलते हैं। मनुष्य के हृदय में निम्न कपाट पाये जाते हैं
(i) त्रिवलन तथा द्विवलन कपाट (Tricuspid and bicuspid valves)
हृदय का दायाँ आलिन्द दायें निलय में एक छिद्र से खुलता है। यह छिद्र एक कपाट से ढका होता है, जिसमें तीन वलन या होंठ उपस्थित होते हैं। इसी को त्रिवलन कपाट (tricuspid valve) कहते हैं। यह कपाट रुधिर के प्रवाह को आलिन्द से निलय में तो आने देता है, लेकिन वापिस जाने नहीं देता है।
इसी प्रकार, बायाँ आलिन्द भी एक छिद्र द्वारा बायें निलय में खुलता है। यह छिद्र भी एक कपाट से ढका होता है। इसमें दो वलनें या होंठ उपस्थित होते हैं। इसी को द्ववलन कपाट (bicuspid value) कहते हैं। यह कपाट भी त्रिवलन कपाट की तरह कार्य करता है।
(ii) अर्धचन्द्राकार कपाट (Semilunar values)-
हृदय के दायें निलय से पल्मोनरी महाधमनी और बायें निलय से एओर्टा निकलता है। पल्मोनरी महाधमनी में अशुद्ध रक्त और एओर्टा में शुद्ध रक्त जाता है। इन्हीं दोनों रुधिर वाहिनियों के छिद्रों पर एक-एक कपाट स्थित होता है। इन्हीं को अर्धचन्द्राकार कपाट कहते हैं। प्रत्येक कपाट में तीन वलने उपस्थित होती हैं। ये कपाट निलय से रुधिर को इन रुधिर वाहिनियों में आने तो देते हैं, लेकिन वापिस जाने से रोकते हैं।
हृदय स्पंदन (Heart Beat)
हृदय रुधिर परिसंचरण तन्त्र का एक मुख्य अंग है। यह एक प्रकार से केन्द्रीय पम्प की तरह कार्य करता है। इसमें बार-बार संकुवन (contraction) व शिथिलन (relaxation) एक-दूसरे के अन्तराल पर होता है। इसी क्रिया के कारण हृदय में एक बल पैदा हो जाता है, जिसके कारण रुधिर वाहिनिये में रुधिर का प्रवाह होता रहता है। हृदय का एक संकुचन और एक शिथिलन सम्मिलित रूप से एक हृदय स्पंदन को प्रदर्शित करता है। एक हृदय स्पन्दन 0-8 सैकण्ड में पूर्ण होत रहता है। इस प्रकार मनुष्य में एक मिनट में 72 बार हृदय स्पन्दन होता है। प्रत्येक स्पन्दन में हृदय से लगभग 60-80 मिली. रुधिर बाहर निकलता है।
हृदय के कार्य
रक्त हमारे शरीर में एक बन्द मार्ग में संचरित होता है। हृदय इस रक्त का कुछ वितरण वाहिनियों या धमनियों में पम्प करता रहता है, जो इस रक्त का पूरे शरीर में वितरण कर देती हैं फिर शिरायें इस रक्त को वापस हृदय में लाती हैं। इस प्रकार रक्त की एक निश्चित मात्रा मनुष्य में 5 लीटर पूरे शरीर में निरन्तर घूमता रहता है। हृदय से शुद्ध रक्त शरीर की विभिन्न असंख्य कोशिकाओं द्वारा शरीर की प्रत्येक सूक्ष्म कोशिकाओं को पोषक तत्व प्रदान करता हुआ उनके अपशिष्ट पदार्थों को ग्रहण करके पुनः वापस हृदय में लौटता है। यह अशुद्ध रक्त विभिन्न कोशिकाओं से दो बड़ी शिराओं के माध्यम से एकत्र कर हृदय के दाहिने आलिन्द में पहुँचाया जाता है, जिसमें शरीर के ऊपर के अंगों से रक्त एकत्र करने का कर्य उच्च महाशिरा और शरीर के निचले अंगों से रक्त ग्रहण करने का कार्य निम्न महाशिरा करती है। इस प्रकार रक्त से पूरा भर जाने पर दायाँ आलिन्द सिकुड़ता है तथा पूरे रक्त को दाहिने निलय में भेज देता है। यहाँ निलय के पूर्ण भर जाने पर भी निलय अपना रक्त आलिन्द में वापस नहीं भेज सकता है, क्योंकि आलिन्द और निलय के मध्य कपाट लगे होते हैं, जिनका मुँह निलय की ओर होता है। इस प्रकार दायाँ निलय रक्त से पूरा भर जाता है।
हृदय की धड़कन
हृदय के कोष्ठों की पेशियों में संकुचन तथा प्रसारण की क्रिया नियमित रूप से होती है। हृदयपेशी की संकुचन की लहर आलिन्दों से प्रारम्भ होकर निलयों में पहुँचती है तथा दबाव में रक्त निलयों के बाहर धमनियों में प्रवाहित होता है। आलिन्दों में फैलने पर निलय संकुचित होकर रुधिर बाहर निकलते हैं तथा आलिन्दों के संकुचित होने पर निलय फैलकर उनका रक्त ग्रहण कर लेते हैं। संकुचन तथा प्रसरण की क्रिया एक मिनट में 72 बार होती है। इसमें दोनों आलिन्द एक साथ सिकुड़ते हैं तथा रक्त को नीचे निलयों में फेंकते हैं। बायाँ निलय संकुचन के समय छाती की दीवार से टकराता है, जो उस स्थान पर हाथ रखने से ज्ञात होती है। इसी टकराव को हृदय का स्पन्द (Beating of the Heart) कहा जाता है।
हृदय में रक्त झटके के साथ धमनियों के माध्यम से आता है। इस झटके से धमनियों में जो लहरें दौड़ती हैं, वह नाड़ी के नाम से पहचानी जाती हैं। यह नाड़ी केवल उन्हीं स्थानों पर ज्ञात की जा सकती है। जहाँ धमनी त्वचा के अति निकट होती है। इसी कारण कलाई में ही नाडी की जाँच की जाती है, क्योंकि कलाई के समीप धमनी त्वचा के अति निकट होती है। यहाँ से नाड़ी की जाँच करने पर हृदय की गति एवं रक्त के दबाव का पता चलता है। इस तरह शरीर के विभिन्न भागों में झटके से उत्पन्न धमनियों की लहरों को सरलता से अनुभव किया जा सकता है। यही स्थान नाड़ी-स्पंदन अथवा दबाव बिन्दु (Pressure Point) कहे जाते हैं।
रक्त वाहिनियाँ (Blood Vessels)
हृदय से शुद्ध अर्थात् ऑक्सीकृत रक्त को एक अंग से दूसरे अंग तक ले जाने तथा विभिन्न अंगों से अशुद्ध अर्थात् अनॉक्सीकृत रक्त को पुनः हृदय में पहुँचाने के लिये शरीर में रक्त वाहिनियों का जाल-सा बिछा होता है। ये रक्त वाहिनियाँ रचना, स्थिति तथा रक्त की प्रकृति के आधार पर तीन प्रकार की होती हैं-1. धमनियाँ (arteries); 2. शिरायें (veins); तथा 3. केशिकायें (capillares)|
(1) धमनियाँ (Arteries)–
रक्त वाहिनयाँ जो सामान्यतः शुद्ध या ऑक्सीकृत रक्त को हृदय से दूर शरीर के विभिन्न अंगों में ले जाती है। धमनियाँ (arteries) कहलाती हैं। केवल पल्मोनरी धमनी एक ऐसी धमनी होती हैं, जो अशुद्ध रक्त फेंफड़ों को ले जाती है। महाधमनी (aorta) शरीर की सबसे बड़ी धमनी होती है। यह हृदय के बायें निलय से निकलकर शुद्ध रक्त को विभिन्न अंगों में अपनी शाखाओं द्वारा भेजती है। इनमें कोई कपाट या वाल्व नहीं होता है, जिससे इनमें रक्त अपेक्षाकृत तीव्र गति के साथ बहता है। इनकी दीवार मोटी और पेशीय होती है। पेशीय होने की वजह से इनकी दीवार में क्रमांकुचन गति (peristaltic movement) होती रहती है और इसी गति के कारण रक्त तेजी से बहता है। ये शरीर की अधिक गहराई तक फैली होती हैं, इसलिये अपने मार्ग में शाखान्वित या विभाजित होकर छोटी होती चली जाती हैं। धमनियाँ विभाजित होकर पतली धमनिकायें (arterioles), धमनिका विभाजित होकर महीन मेटाधमनिकायें (metaarterioles), मेटाधमनिकायें विभाजित होकर वास्तविक अति सूक्ष्म कोशिकायें, बनाती हैं।
(2) शिरायें (Veins)-
रक्त वाहिनियाँ जो शरीर के विभिन्न अंगों से रक्त एकत्र करके हृदय की ओर लाती हैं, शिरायें (veins) कहलाती हैं। शिरायें अधिकांशत: अशुद्ध या अनॉक्सीकृत रक्त लाती हैं। केवल पल्मोनरी शिरा एक ऐसी शिरा है, जो शुद्ध या ऑक्सीकृत रक्त फेंफड़ों से हृदय में लाती है। ये पतली दीवार वाली तथा पिचक जा सकने वाली होती हैं। इनमें अधिकांशत: अर्द्धचन्द्रकार कपाट या वाल्व पाये जाते हैं, जो इनमें रक्त के उलटे प्रवाह को रोकते हैं और क्रमाकुंचन गति का अभाव होता है। इनमें रक्त का प्रवाह इनकी दीवार में उपस्थित अर्द्धचन्द्राकार कपाटों, देह की पेशियों के सकुंचन तथा हृदय की चूषणी क्रिया पर निर्भर करता है।
(3) केशिकाएँ (Capillaries)-
जैस कि पूर्व में बताया जा चुका है कि धमनियाँ बारम्बार विभाजित होकर अत्यधिक नहीन केशिकाओं (capillaries) को बनाती हैं, जो एक-दूसरे से गूंथकर एक घटना जाल-सा बनाती हैं। केशिकाएँ उन ऊतकों व अंगों में प्रचुरता से पायी जाती है, जिनमें उपापचय क्रियाएँ अधिक होती हैं, लेकिन जिनमें उपापचय कम या धीमा होता है, उनमें ये बहुत कम होती हैं। ये रुधिर परिसंचरण तन्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण क्रियात्मक भाग होती हैं, क्योंकि रुधिर व ऊतकों के बीच रासायनिक लेन-देन इन्हीं के द्वारा होता है। इनकी दीवार बहुत ही पतली होती है, जिसमें से पदार्थों का विसरण आसानी से हो जाता है। धमनी केशिकाओं से रक्त बहकर
शिराएँ |
शिराएँ
उतनी ही महीन शिरा केशिकाओं में आ जाता है। शिरा केशिकाएँ परस्पर मिलकर शिरिकाओं (venules) को बनाती है। शिरिकाएँ मिलकर शिराओं (veins) का निर्माण करती है।