मानव उत्सर्जन तंत्र
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मानव उत्सर्जन-तन्त्र के अंग
1. फेफड़े (Lungs)-शरीर में श्वसन क्रिया के फलस्वरूप कार्बन- डाइ ऑक्साइड गैस ग्लूकोज के ऑकसीकरण से बनती है। यह कार्बन- डाई ऑक्साइड गैस फेफड़ों द्वारा शरीर से बाहर निकाली जाती है।2. गुर्दे या वृक्क (Kidney) वृक्कों का प्रमुख काम शरीर में उत्पन्न यूरिया, कार्बन डाई -ऑक्साइड और अनावश्यक लवण तथा जल को मूत्र में बदलकर शरीर से बाहर निकालना है। मूत्र का निर्माण गुर्दो में होता है।3. बड़ी आँत (Large Intestine)—पचे हुए भोजन से पोषक पदार्थों केअवशोषण के बाद जो शेष बचता है, उसे बड़ी आँत सड़ाकर मल के रूप में परिवर्तित कर देती है और वह मलाशय में जाकर एकत्र हो जाता है। इस प्रकार मलाशय भी एक उत्सर्जी अंग के समान ही काम करता है। '4. त्वचा (Skin) त्वचा से पसीने के रूप में अनेक हानिकारक लवणों तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड का विसर्जन होता है।
वृक्क (Kidneys)—
मनुष्य तथा अन्य कशेरुकी जन्तुओं के मुख्य उत्सर्जी अंग वृक्क (kidneys) होते हैं। उत्सर्जी पदार्थों का निष्कासन मूत्र के रूप में इन्हीं संरचनाओं के द्वारा होता है। इस तरह ये उत्सर्जी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालकर शरीर के आन्तरिक वातावरण के सन्तुलन में सहायक होते हैं। यकृत में बना यूरिया तथा अन्य उत्सर्जी पदार्थ रक्त के साथ वृक्क में पहुँच जाते हैं। वृक्क इन उत्सर्जी पदार्थों को रक्त से अलग करने और मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालने के लिए पूर्ण सक्षम होते हैं।
मनुष्य में वृक्कों का एक जोड़ा होता है। ये गहरे लाल रंग के होते हैं। ये उदर गुहा में कशेरुक दण्ड के इधर-उधर सटे हुए पाये जाते हैं। प्रत्येक वृक्क सेम के बीज के आकार का होता है। दोनों वृक्क एक ही तल पर नहीं पाये जाते हैं। दाहिना वृक्क बायें की तुलना में कुछ नीचे की ओर स्थित होता है।
मनुष्य के वृक्क तथा उससे सम्बन्धित अंग |
प्रत्येक वृक्क बाहर की ओर एक पतले, तन्तुमय, सफेद आवरण से घिरा होता है, जिसे सम्पुट (capsule) कहते हैं। प्रत्येक वृक्क की बाहरी सतह उभरी हुई (convex) और भीतरी सतह दबी हुई (concave) होती है अर्थात् अन्दर की सतह पर एक गड्डा सा होता है, जिसे वृक्क नाभि अथवा हाइलस रेनैलिस (hilus renalis) कहते हैं। इस गड्डे में से मूत्र वाहिनी (ureter) निकल कर उदरगुहा के पश्च भाग में स्थित मूत्राशय (urinary bladder) में खुलती है। मूत्रवाहिनी की दीवारें पेशीय होती है, जिससे इसमें क्रमाकुंचन (peristaltic movement) होता है और मूत्र मूत्राशय की ओर बहता है। इसी गड्डे से वृक्क धमनी (renal artery) वृक्क में प्रवेश करती है और वृक्क शिरा (renal vein) वृक्क से रक्त को लेकर बाहर निकलती है।
वृक्क की रचना (Structure of Kidney)
अगर वृक्क की लम्बवत् काट (longitudinal section) का सूक्ष्मदर्शी की सहायता से अध्ययन किया जाये तो आप पायेंगे कि प्रत्येक वृक्क बाहरी तथा आन्तरिक भाग में विभेदित होता है। बाहर वाला कॉर्टेक्स (cortex) तथा अन्दर वाला भाग मेडूला (medulla) कहलाता है। कॉर्टेक्स भाग में अति सूक्ष्म वृक्क नलिकाएँ मूत्र का स्त्राव करती पायी जाती हैं। मेडूला (medulla) भाग में वृक्क पिरैमिड्स (renal pyramids) पाये जाते हैं, जो संग्रह व बाँटने वाली नलिकाएँ (collecting and discharging tubules) रखते हैं। वृक्क पिरमिड्स (renal pyramids) कैलिसिस (calyces) से सम्बन्धित होते हैं। सभी कैलिसिस (calyces) कीप के आकार के वृक्क गोणिका (pelvis) में खुलते हैं, जो मूत्रवाहिनी (ureter) का सबसे चौड़ा भाग होता है। अतः मूत्र का स्राव वृक्क नलिकाओं द्वारा होता है। वृक्क नलिकाओं से मूत्र संग्रह नलिकाओं में और वहाँ से पिरैमिड्स से होकर कैलिसिस में और फिर वहाँ से पेल्विस से होकर मूत्रवाहिनी में और अन्त में मूत्रवाहिनी से होकर मूत्राशय में पहुँच जाता है, जहाँ मूत्र एकत्र होता रहता है। मूत्राशय से मूत्र आवश्यकता पड़ने पर शरीर से बाहर फेंक दिया जाता है।
वृक्क की कार्यिकी तथा मूत्र का निर्माण
(Physiology of Kidney and Urine Formation)
यूरिया को रुधिर से अलग करने तथा मूत्र में परिवर्तित करने का कार्य वास्तव में वृक्कों में स्थित वृक्क नलिकाएँ (uriniferous tubules) करती हैं। वृक्क नलिकाओं के बोमैन संपुट (bowman's capsule) छलनी की तरह कार्य करते हैं। इनकी व केशिका गुच्छ की दीवारें बहुत ही पतली होती है, इसलिए ये विभिन्न पदार्थों के लिए पारगम्य होती हैं। यूरिया को रुधिर से अलग करने तथा मूत्र में परिवर्तित करने के लिए वृक्कों में तीन क्रियाएँ होती हैं-
1. परानिस्पंदन (Ultra-filteration),2. वरणात्मक अवशोषण (selective absorption) तथा3. नलकीय स्रावण (Tibular secretion)।
(b) परानिस्पंदन (Ultra-filteration) जब प्रत्येक अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) से रुधिर बोमैन्स संपुट के केशिका गुच्छ से गुजरता है तो रुधिर के अधिक दबाव के कारण अधिकांश नाइट्रोजनी पदार्थ व कुछ उपयोगी पदार्थ रुधिर से छनकर वृक्क नलिका में आ जाते हैं। इस प्रक्रिया के परा निस्पंदन कहते हैं। वृक्क नलिका में छनकर आये द्रव को ग्लोमेरुलर निस्पंद या फिल्टरेट (glomerular filterate) कहते हैं।
(ii) वरणात्मक पुनरावशोषण (Selective reabsorption)-जब ग्लोमेरुलर फिल्टेरेट वृक्क नलिका में बहता है तो उसमें उपस्थित उपयोगी पदार्थ अवशोषित होकर दूसरे केशिका जाल के रुधिर में पहुँच जाते हैं। इस क्रिया को वरणात्मक अवशोषण कहते
(iii) नलकीय स्रावण (Tubular Secretion) जब अपवाही केशिका का रुधिर दूसरे केशिका गुच्छ से गुजरता है तो उसके अवशेष नाइट्रोजनी पदार्थ स्रावित होकर वृक्क नलिका के भीतर फिल्टेरेट में मिल जाते हैं। इस क्रिया को नलकीय स्रावण कहते
मूत्र (Urine)
उपरोक्त तीनों प्रक्रियाओं के पश्चात् जो द्रव नलिका के भीतर रह जाता है, वह मूत्र होता है। वृक्क की सभी वृक्क नलिकाओं से मूत्र मूत्रवाहिनी (ureter) में पहुँच जाता है। दोनों वृक्कों की मत्रवाहिनियाँ मूत्र को मूत्राशय (urinary bladder) तक ले जाती हैं, जहाँ वह एकत्र होता रहता है। जब मूत्राशय मूत्र से सम्पूर्ण भर जाता है तो उसमें स्वतः संकुचन की क्रिया होती है और मूत्र मूत्रमार्ग से होकर शरीर से बाहर निकल जाता है।
मूत्र का शरीर से बाहर निकलना-
मूत्र वृक्क नलिकाओं से होता हुआ संग्रह नलिकाओं में आता है। संग्रह-नलिकाओं से मूत्र पिरैमिड्स कैलिसिस व पेल्विस में होता हुआ मूत्र-वाहिनी में आता है और वहाँ से मूत्र एक-एक बूंद करके मूत्राशय में एकत्र होता रहता है। मूत्राशय का दूरस्थ भाग मूत्र मार्ग अथवा यूरिथरा (urethra) बनाता है, जिसकी दीवार पेशीय होती है। यह मूत्रजनन छिद्र (urinogenital aperture) द्वार बाहर खुलता है। सामान्य अवस्था में मूत्र मार्ग की पेशियाँ संकुचित अवस्था में रहती हैं, जिससे मूत्र मूत्राशय से मूत्र मार्ग में नही आ पाता। किन्तु प्राणी जब अपनी इच्छानुसार मूत्र मार्ग की पेशियों को शिथिल (relax) करता है, तभी मूत्र मूत्राशय से निकलकर मूत्र मार्ग से होता हुआ मूत्रजनन छिद्र से शरीर से बाहर निकल जाता है।
वृक्क अथवा वृक्क नलिकाओं के विभिन्न नियन्त्रक कार्य
मूत्र निर्माण अथवा उत्सर्जी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के अतिरिक्त वृक्क अथवा वृक्क नलिकाएँ निम्न नियन्त्रक कार्य करती हैं
1. जल सन्तुलन (Water-balance)–रक्त से जल की अतिरिक्त मात्रा को मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालती हैं। इस तरह ये शरीर में जल के सन्तुलन को नियन्त्रित करती है।
2. अवाष्पशील अपशिष्ट पदार्थों का निष्कासन (Removal of non-volatile waste substances) ये अवाष्पशील अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालती है, जिससे शरीर रोगों का शिकार नहीं हो पाता है।
वृक्क के कार्य (Functions of Kidney)-
शरीर के महत्त्वपूर्ण अंगों में वृक्कों का नाम भी उल्लेखनीय है। वृक्कों द्वारा शरीर में निम्न कार्य किये जाते हैं
1. वृक्कों का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य रक्त को छानना है, क्योंकि रक्त में अनेक विषैले पदार्थ घुले रहते हैं, जो शरीर की जैविक क्रियाओं के फलस्वरूप बनते हैं, जैसे—यूरिया, अमोनिया, यूरिक एसिड, विभिन्न लवण तथा क्रिटिनिन । वृक्कों का यह कार्य मानव-शरीर के लिए प्राणदायक का कार्य करता है, क्योंकि विषैले पदार्थों का शरीर में अधिक देर तक रुकना अत्यन्त हानिकारक होता है।2. वृक्कों का कार्य रक्त प्लाज्मा के विभिन्न तत्त्वों की मात्रा को नियन्त्रित करना है। रक्त प्लाज्मा में किसी तत्व की अधिकता होने पर वृक्कों द्वारा उसे मूत्र की सहायता से शरीर के बाहर निकाल दिया जाता है।3. शरीर की विभिन्न जैविक-क्रियाओं के फलस्वरूप यदि अम्लों तथा क्षारों की अधिक मात्रा बनने लगती है, तब वृक्क इनको शरीर से अलग कर रुधिर की अम्लता/क्षारकता को सामान्य बनाये रखता है।।4. शरीर की विभिन्न कोशिकाओं में पानी के अनुपात को नियन्त्रित रखने का काम भी वृक्कों द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है।
वृक्क की अनियमितता
प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में वृक्क जीवनपर्यन्त कार्य करते हैं, परन्तु किन्हीं कारणों से वृक्कों में गड़बडो आ जाती है। यदि ऐसा होता है तब शरीर में यूरिया की मात्रा बढ़ जाती है। इस रोग को शरीर में यूरिमिया (uremia) कहते हैं। दोनों वृक्कों में से यदि एक वृक्क खराब भी हो जाये तब भी मानव अपना जीवन एक वृक्क की सहायता से ही चला सकता है, परन्तु यदि दोनों में ही कुछ खराबी आ जाये तब एक वृक्क को बदल दिया जाता है। प्रायः वृक्क को सुचारू रूप से चलाने के लिए हमें नियमों का पालन करना चाहिए।
त्वचा (Skin) प्रत्येक व्यक्ति के शरीर का बाह्य भाग एक आवरण का बना होता है, जिसे 'त्वचा' (skin), चर्म या खाल कहते हैं। यह हमारे शरीर के आन्तरिक
त्वचा (Skin) |
अंगों की सुरक्षा के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। त्वचा का प्रमुख कार्य शरीर के विजातीय पदार्थों को पसीने के रूप में शरीर से बाहर निकालना है। त्वचा की खड़ी काट में दो मुख्य स्ता दिखलाई देते हैं
1. बाहरी अधिचर्म' या 'उपत्वचा' (Epidermis),2. भीतरी 'चर्म' या 'त्वचा' (Dermis)।