मानव श्वसन तन्त्र

मानव श्वसन तन्त्र 

Human Respiratory System 

    मनुष्य के श्वसनांग—मनुष्य जमीन पर रहता है। इसी कारण उसमें वायुवीय श्वसन होता है। मनुष्य को वायुमण्डल से ऑक्सीजन मिलती है। ऑक्सीजन प्राप्त करने के लिए मनुष्य के शरीर में एक जोड़ी फेफड़े होते हैं। प्रत्येक फेफड़ा गुलाबी रंग का कोमल तथा स्पंजी होता है। मनुष्य का दायाँ फेफड़ा बायें फेफड़े से बड़ा व तीन पालियों वाला होता है। प्रत्येक फेफड़ा बाहर की ओर पेरिटोनियम की महीन फुफ्पुसावरण की दोहरी परत से ढका रहता है। दोनों परतों के बीच में एक तल भरा रहता है, जो फेफड़ों को नम व सुरक्षित बनाये रखता है।
मानव श्वसन तन्त्र Human Respiratory System
मानव श्वसन तन्त्र Human Respiratory System


प्रत्येक फेफड़ा वक्षगुहा के अन्दर अपनी ओर की फुफ्फसावरणी गुहा (pleural cavity) में स्थित होता है। इस गुहा का बाहर की वायु से कोई भी सम्बन्ध नहीं होता है और न ही वायु के आने-जाने के लिए मार्ग होता है। अत: यह गुहा वायुरुद्ध (air tight) होती है। फेफड़ों का सम्बन्ध बाहर से केवल श्वास नली द्वारा होता है। फेफड़ों में हवा स्वयं अपने आप नहीं भरती, बल्कि फेफड़ों में हवा का भरना व बाहर निकलना स्वयं उनकी फुफ्फुसावरणी गुहा पर निर्भर होता है। जिस समय ये गुहायें फूलती हैं तो इन गुहाओं का आयतन बढ़ जाता है। आयतन बढ़ने से वायु का दबाव बाहर की अपेक्षा कम हो जाता है, ऐसी स्थिति में हवा फेफड़ों में घुस जाती है, जिससे फेफड़े फूल जाते हैं। इसके विपरीत जैसे ही गुहायें पिचकती हैं तो इन गुहाओं का आयतन कम हो जाता है, जिससे वायु का दबाव बाहर की अपेक्षा अधिक हो जात है। ऐसी स्थिति में हवा फेफड़ों से बाहर निकल जाती है और फेफड़े पिचक जाते हैं। फेफड़ों के अन्दर शुद्ध वायु का आना निश्वसन (inspiration) तथा अशुद्ध वायु का फेफड़ों से बाहर जाना नि:श्वसन (expiration) कहलाता है।

वक्षगुहा (Thoracic cavity)-

    फेफड़ों का फूलना व पिचकना इनकी अपनी फुफ्फुसावरणी गुहाओं पर निर्भर होता है, किन्तु फुफ्फुसावरणी गुहाओं का छोटा-बड़ा होना वक्षगुहा (thoracic cavity) के ऊपर निर्भर होता है। मनुष्य की वक्षगुहा की रचना एक बन्द बक्से सदृश होती है, जिससे पृष्ठ तल पर कशेरक दण्ड (vertebral column), अधर तल पर स्टर्नम (sternum), पार्श्व तलों पर पसतियाँ (ribs), आगे की ओर ग्रीवा तथा पीछे की ओर डायफ्राम (diaphragm) होता है। इस तरह विभिन्न रचनाओं से वक्षगुहा घिरी होती है। पसलियाँ ऊपर की ओर वक्षीय कशेरुकाओं (thoracic vertebrae) मे तथा नीचे की ओर कामन सदृश स्टर्नम से जुड़ी रहती हैं। सामान्य स्थिति में प्रत्येक पसली पीछे की ओर झुकी रहती है। साथ ही हर दो पसलियों के बीच दो प्रकार की पेशियाँ होती हैं

(i) बाह्य अन्तरापर्युक पेशियाँ (External intercostal muscles) 

    ये पेशियाँ प्रत्येक पसली के ऊपरी भाग से निकलकर अपने पीछे वाली पसली के निचले भाग से जुड़ी रहती हैं। 

(ii) अन्तः अन्तरापर्युक पेशियाँ (Internal Intercostal Muscles)—

ये पेशियाँ प्रत्येक पसली के निचले भाग में निकलकर अपने पीछे वाली पसली के ऊपरी भग से जुड़ी रहती हैं।

    डायफ्राम प्लेटनुमा रचना होती है, जो पेशियों तथा तन्तओं की बनी होती है। यह पक्ष-गुहा की ओर गुम्बद की तरह उठी हुई होती है। इसका केन्द्रीय भाग एक अर्द्ध चन्द्राकार कण्डरा (tendon) के रूप में होता है, जिसके चारों ओर अनेक अरीय पेशियाँ (radial muscles) निकलकर कशेरुक दण्ड, स्टर्नम, पिछली पसलियों तथा उदर भाग की देहभित्ति से जुड़ी होती हैं। वक्षीय गुहा का छोटा व बड़ा होना डायफ्राम की इन्हीं अरीय पेशियों तथा पसलियों की बाह्य अन्तरापर्युक पेशियों एवं अन्तः अन्तरापर्युक पेशियों के सिकुड़ने व फैलने पर निर्भर करता है।

बाह्य श्वसन (External Respiration) 

(i) निश्वसन या इन्सपिरेशन (Inspiration) 

    निश्वसन के अन्तर्गत बाहरी वायु फेफड़ों में भरती है । इस क्रिया में बाह्य अन्तरापर्युक पेशियाँ (external intercostal muscles) सिकुड़ती हैं, जिससे पसलियाँ कुछ बाहर व आगे की ओर खिसक जाती हैं। साथ ही स्टर्नम नीचे की ओर झुक जाता है। इसी समय डायफ्राम की अरीय या रेडियल पेशियाँ भी सिकुड़ती हैं, जिससे गुम्बद के आकार का डायफ्राम चपटा हो जाता है। ऐसा होने से वक्षीय गुहा का आयतन बढ़ जाता है । वक्षीय गुहा के आयतन बढ़ने के साथ फेफड़ों का भी आयतन बढ़ जाता है, जिससे फेफड़ों में वायु का दाब बाहर वायुमण्डल के दाब से कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में वायु बाह्य नासाछिद्रों से नासाकोशों तथा श्वसन मार्ग से होती हुई श्वास नली द्वारा फेफड़ों में तेजी से चली जाती है। फेफड़ों में वायु तब तक प्रवेश करती है, जब तक कि वायु का दाब शरीर के अन्दर व बाहर बराबर नहीं हो जाता है। वायु का इस प्रकार फेफड़ों में जाना निश्वसन (inspiration) कहलाता है।

(ii) निःश्वसन या एक्सपिरेशन (Expiration)-

इस क्रिया के अन्तर्गत फेफड़ों से वायु बाहर निकलती है। इस क्रिया में अन्त: अन्तरापर्युक पेशियाँ (internal intercostal muscles) सिकुड़ती हैं तथा डायफ्राम की पेशियाँ व बाह्य अन्तरापर्युक पेशियों में शिथिलन (relaxation) होता है। ऐसा होने से डायफ्राम व पसलियाँ खिसककर सामान्य स्थिति में आ जाती हैं और स्टर्नम ऊपर उठ जाता है। ऐसी स्थिति में वक्षीय गुहा का आयतन कम होकर उतना रह जाता है, जितना कि नि:श्वसन से पूर्व था। साथ ही फेफड़ों पर दबाव बढ़ जाता है, जिससे वायु पुनः श्वसन मार्ग से बाहर निकल जाती है। वायु का इस प्रकार फेफड़ों से बाहर निकलना नि:श्वसन (expiration) कहलाता है।

    इस तरह निश्वसन की क्रिया एक के बाद एक निरन्तर होती रहती है और इस | तरह बाह्य श्वसन (external respiration) की क्रिया चलती रहती है।

फेफड़ों में वायु की मात्रा (Volume of air in lungs) 

किसी भी प्राणी में सामान्य श्वसन के अन्तर्गत निश्वसन (inspiration) में वायु की जितनी मात्रा वायुमण्डल से फेफड़ों में प्रवेश करती है या नि:श्वसन (expiration) के अन्तर्गत फेफड़ों से वायु की जो मात्रा शरीर से बाहर वायुमण्डल में निकलती है, उसे ज्वारीय वायु (tidal air) कहते हैं। युवा पुरुष में यह लगभग 500 मिली. होती है। फेफड़ों को न तो हवा से पूरा भरा जा सकता है और न ही पूरा खाली किया जा सकता है। ज्वारीय वायु का केवल दो-तिहाई भाग ही फेफड़ों की वायु कूपिकाओं (alveoli) में प्रवेश करता है और शेष एक-तिहाई भाग श्वास नली में ही रह जाता है।

श्वसन की हवा में परिवर्तन 

    निश्वसन में वायुमण्डल की वायु जैसे ही बाह्य नासाछिद्रों से नासाकोषों तथा श्वसन मार्ग से होती हुई फेफड़ों में पहुँचती है तो हवा में कई परिवर्तन आजाते हैं। सबसे पहले यह वायु फेफड़ों में पहुंचने से पहले ही पूर्ण रूप से छन चुकी होती है। इसमें उपस्थित धूल आदि के कण नासाकोशों में उपस्थित बालों में अटककर तथा श्लेष्म में चिपककर रह जाते हैं। इसका ताप लगभग शरीर के ताप के बराबर हो जाता है। फेफड़ों की भीतरी भित्ति नम होने से यह वायु चाहे जितनी भी शुष्क हो जल वाष्प से संतृप्त (saturate) हो जाती है और इसी कारण से निःश्वसन में जो वायु शरीर से बाहर निकलती है, वह गरम व नम होती है। ऐसा अनुमान है कि प्राणी अपने शरीर का लगभग आधा लीटर जल दिनभर में अपनी श्वास की वायु के द्वारा ही खो देता है। इससे स्पष्ट होता है कि श्वास-क्रिया कुछ हद तक शरीर का जल व ताप का नियन्त्रण करती है।

गैसों का विनिमय (Exchange of Gases) 


    श्वसन गैसों का आदान-प्रदान (exchange of respiratory gases) फेफड़ों की आन्तरिक सतह पर होता है। प्रत्येक फेफड़ों में अनेक छोटी-छोटी सूक्ष्म वायु कूपिकाएँ (alveoli) होती हैं, जिनके चारों ओर रक्त कोशिकाओं (Blood Capillaries) का घना जाल उपस्थित होता है। वायु कूपिकाओं की दीवार बहुत ही महीन होती है, जो रक्त कोशिकाओं की दीवार से लगभग सटी होती है। वायु कूपिकाओं की दीवार O2 एवं CO2 के लिए पारगम्य (permeable) होती है और स्वतन्त्र तल पर तरल का महीन स्तर होता है। O2 तथा CO2 गैसें इसी तरल में घुलकर वायु कूपिकाओं की दीवार से विसरित होकर क्रमश: रक्त व फेफड़े की गुहा में पहुँच जाती है। जैसे ही निश्वसन (inspiration) के अन्तर्गत वायु फेफड़े तक पहुँचती है तो गैसों का विनिमय अर्थात् आदान-प्रदान शुरू हो जाता है। ऑक्सीजन फेफड़ों की वायु कूपिकाओं की दीवार से होकर रक्त कोशिकाओं में और कार्बन डाइ ऑक्साइड रक्त कोशिकाओं से फेफड़ों की दीवार पार करके इनके गुहा में विसरित हो जाती है।

    ऐसा विश्वास है कि श्वसन गैसों (O2,व CO2) का आदान-प्रदान सरल भौतिकीय विसरण (simple physical diffusion) के सिद्धान्त के आधार पर होता है अर्थात् गैसें उच्च आंशिक दाब (high partial pressure) से निम्न आंशिक दाब (low partial pressure) की ओर विसरित होती हैं। वातावरण की वायु में ऑक्सीजन का आंशिक दाब शरीर में उपस्थित ऑक्सीजन के आंशिक तब से अधिक होता है, इसलिए ऑक्सीजन वातावरण की वायु से शरीर से विसरित हो जाती है। इसी प्रकार कोशिकीय श्वसन के फलस्वरूप उत्पन्न कार्बन-डाई-ऑक्साइड का गैस का आंशिक दाब फेफड़ों की गुहा में उपस्थित वायु की कार्बन डाई-ऑक्साइड के आंशिक दाब से कहीं अधिक होता है। इसलिए शरीर की कार्बन डाई ऑक्साइड फेफड़ों की दीवार से विसरित होकर शरीर से बाहर नि:श्वसन के अन्तर्गत निकल जाती है।

    फेफड़ों की भाँति ऊतकों की कोशिकाओं और रक्त के बीच भी गैसीय विनिमय होता है। इनके बीच गैसीय विनिमय ऊतक द्रव्य (tissue fluid) के माध्यम से होता है। कोशिकाओं में सदा उपापचयी क्रियाएँ होती रहती हैं, जिससे O2 की सदैव कमी तथा CO2 की बहुतायत रहती है। अत: रक्त से O2 कोशिकाओं में और CO2 कोशिकाओं से रक्त में ऊतक द्रव्य की सहायता से विसरित होती रहती है। .

गैसों का परिवहन

(Transport of Gases) 

    श्वसन गैसों का परिवहन रक्त परिसंचरण तन्त्र (Blood vascular system) की सहायता से होता है, जिसमें रक्त परिसंचरण माध्यम (circulatory medium) का कार्य करता है। रक्त स्वयं श्वसन गैसों को ले जाने का कार्य नहीं करता है, बल्कि इसमें एक प्रकार का श्वसन वर्णक (respiratory pigment) पाया जाता है, जो वास्तव में श्वसन गैसों के परिवहन में भाग लेता है, क्योंकि इसमें श्वसनगैसों के लिए विशेष बन्धता (special affinity) होती है। इस श्वसनवर्णक को हीमोग्लोबिन (haemoglobin) कहते हैं।

    हीमोग्लोबिन लाल रंग का होता है और रक्त की लाल रक्त कणिकाओं में पाया जाता है। यह हीम (haeme) तथा ग्लोबिन (globin) नामक दो घटकों के मिलने से बना होता है। हीम आयरन पोरफाइरिन होता है, जबकि ग्लोबिन एक संयुक्त प्रोटीन होती है। हीमोग्लोबिन का सबसे प्रमुख लक्षण श्वसन गैसों के लिए बन्धता है। यह सामान्य ताप पर ऑक्सीजन व कार्बन डाइ ऑक्साइड के साथ संयुक्त होकर अस्थायी यौगिक बनाता है और शीघ्र ही फिर इन यौगिकों से विमुक्त भी हो जाता है। हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन के साथ संयुक्त होकर ऑक्सीहीमोग्लोबिन (oxyhaemoglobin) बनाता है। ऑक्सीहीमोग्लोबिन चमकीले लाल रंग का होता है, इसीलिए धमनियों का रक्त चमकीला लाल होता है, क्योंकि वह ऑक्सीहीमोग्लोबिन युक्त होता है और शिराओं का रक्त कुछ नीला-सा होता है, क्योंकि वह केवल हीमोग्लोबिन-युक्त होता है।

ऑक्सीजन का परिवहन

(Transport of Oxygen) 

1. फेफड़ों से ऑक्सीजन का निष्कासन (Removal of oxygen from Lungs)—

फेफड़ों की वायु की ऑक्सीजन का आंशिक दाब फेफड़ों की कोशिकाओं के रक्त में उपस्थित ऑक्सीजन के आंशिक दाब से कहीं अधिक रहता है। अत: ऑक्सीजन फेफड़ों की वायु से रक्त कोशिकाओं में विसरित हो जाती है। इस तरह विसरित हुई ऑक्सीजन की अधिकांश मात्रा का परिवहन हीमोग्लोबिन की सहायता से होता है और शेष ऑक्सीजन का रक्त प्लाज्मा में घुलकर परिवहन होता है। ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन के साथ अस्थायी यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन बनाती है। इस तरह ऑक्सीजन ऑक्सीहीमोग्लोबिन के रूप में शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुँचती है।

2. रक्त से ऊतकों में ऑक्सीजन का विसरण (Diffusion of Oxygen from the Blood into the Tissues) 

जैसे ही ऑक्सीहीमोग्लोबिन रक्त के साथ शरीर के उन विभिन्न ऊतकों तक पहुँचता है, जिन्हें ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, स्वतन्त्र ऑक्सीजन और अपचित हीमोग्लोबिन (free oxygen and reduced haemoglobin) में वियोजित हो जाता है। इस तरह मुस्त अपचित हीमोग्लोबिन (reduced haemoglobin) पुनः ऑक्सीजन के साथ संयुक्त होने के लिए तैयार हो जाता है। स्वतन्त्र ऑक्सीजन ऊतकों में संचित भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण के काम आती है, जिससे ऊर्जा उत्पन्न होती है। ऊतकों में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम होती है, जिससे इसका आंशिक दाब भी कम हो जाता है। आंशिक दाब कम होने से ही ऑक्सीहीमोग्लोबिन ऑक्सीजन व हीमोग्लोबिन में वियोजित हो जाता है।

    ऑक्सीजन तथा हीमोग्लोबिन का संयोजन जितनी शीघ्रता से होता है, उतनी ही शीघ्रता से ऑक्सीहीमोग्लोबिन का विखण्डन भी होता है। ऑक्सीजन का हीमोग्लोबिन से कितनी मात्रा का संयोजन होता है, यह ऑक्सीजन के आंशिक दाब तथा रक्त की हाइड्रोजन सान्द्रता (pH) पर निर्भर करता है। अत: यह स्पष्ट होता है कि हीमोग्लोबिन बार-बार ऑक्सीजन से संयोजित होता है और मुक्त होता रहता है।
Kkr Kishan Regar

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