निमेटोडो से उत्पन्न मानव रोग

निमेटोडो से उत्पन्न मानव रोग


हेल्मिन्थ एवं मानव रोग (Helminths and Human Diseases)-

हेल्मिन्थ वे जन्तु होते हैं, जो प्लैटीहेल्मिन्थीज (Platyhelminthes) और निमैटोडा (Nematoda) या निमैटहेल्मिन्थीस (Nemathelminthes) संघों के अन्तर्गत आते हैं। इस समूह के अनेक कृमि मनुष्य की आहार नाल तथा रुधिर के अन्तः परजीवी (endoparasites) होते हैं और रोग उत्पन्न करते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न रोगों को सामान्यत: हैल्मिथिएसिस (helminthiasis) कहते हैं। इन रोगों की तीन श्रेणियाँ अति प्रसारित हैं-
(i) निमैटोडिएसिस (nematodiasis), 
(ii) ट्रिमैडोडिएसिस (trematodiasis) और 
(iii) सेस्टोडिएसिस (cestodiasis)|

(I) निमेटोडिएसिस (Nematodiasis)-

वे रोग, जो निमैटोड से मनुष्य में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं 

1. ऐस्कैरिऐसिस (Ascariasis)-

यह एक अत्यन्त सामान्य रोग है, जो आँत के गोलकृमि, ऐस्कारिस लुम्बीकॉइडीस (Ascaris lumbricoides) द्वारा उत्पन्न होता है। यह गदैले-सफेद केंचुए से मिलता-जुलता और बच्चों में बहुधा मिलने वाला कृमि है। इसकी मादा, जो नर की अपेक्षा बड़ी होती है, लगभग 2,00,000 अण्डे प्रतिदिन देती है। ये अण्डे विष्ठा के साथ बाहर निकल कर मिट्टी में कई दिनों तक जीवित रह सकते हैं। मनुष्य में यह रोग प्रदूषित भोजन, जैसे कच्ची सब्जियाँ, फल, इत्यादि और जल के साथ इसके भ्रूणित अण्डों को लेने से होता है। दूषित मिट्टी में खेलने वाले बच्चों में भी इसके अण्डे हाथ से मुख में स्थानान्तरित होते हैं। आँत्र में अण्डों से किशोर (juveniles) निकलते हैं और लारवा परिवर्धन का चक्र आरम्भ हो जाता है। ये किशोर आँत-भित्ति को बेधकर यकत में प्रवास कर जाते हैं जहाँ से हृदय में होते हुए कुफ्फसों में पहुँचते हैं। अन्त में वे फिर आंत में लौट आते हैं और वयस्क परजीवी में परिवर्धित हो जाते हैं।

    वयस्क ऐस्कारिस के आंत्र में रहने पर रोगी को उदर पीड़ा (abdominal pain), वमन (vomiting), सिर दर्द, जलन (irriability), चक्कर आना (dizziness) और रात्रि भय (night terrors) और लालास्त्रवण (salivation) भी होता है। प्रायः रोगी सोते हुए दाँतो को किटकिटाता है। जब वयस्क कृमि आंत्र भित्ति से होकर प्रवास करते हैं तो तीक्ष्ण पेरीटोनिटिस (peritonitis) उत्पन्न करते है। ये शरीर के अन्य भागों में पहुँच कर ऐपेंडिसाइटिस (appendicitis), पित्ताशय रोग (gall bladder trouble) और यकृत रोग (liver disease) उत्पन्न कर सकते हैं। इसके किशोर कुपकुसों में पहुँच कर ब्रोंकाइटिस एवं (bronchitis) उत्पन्न करते हैं।

    मानव ऐस्केरिसता की चिकित्सा पाइपेरैजीन साइट्रेट (piperazine cirate) शर्बत को मुख द्वारा द्वारा लेकर सरलतापूर्वक की जा सकती है। चाय की दो चम्मच भरकर यह शर्बत प्रतिदित दो बार एक सप्ताह तक लेना चाहिये। इसके बाद एक सप्ताह के बाद किर एक सप्ताह तक इसे दोहराना चाहिए। इसके अलावा हेक्सिलरिसोर्सिनोल (hexy Iresorcinol) की 100 मिग्रा की एक गोली दिन में एक बार जल के साथ लेनी चाहिए। सेंटोनिन (santonin) और चीनोपोडियम का तेल (oil of chenopodium) भी इसकी लाभदायक औषधियाँ हैं।

2. ऐन्किलोस्टोमिरेसिस (Ancylostomiasis)-

यह रोग ऐन्किलोस्टोमा डूओडिनेल (Aneylostoma duodenale) और निकेटर अमेरिकेनस (Necator americuanus) नामक दो हक कमियों द्वारा उत्पन्न होता है। ये दोनों निमैटोड सामान्यत: ग्रामीण क्षेत्रों में मनुष्य की आंत के परजीवी होते हैं। मादा हुककृमि प्रतिदिन 5,000 से 10,000 अण्डे देती हैं, जो विष्ठा के साथ बाहर निकल जाते हैं। जब इन अण्डों से किशोर निकलते हैं तो वे मनुष्य के पैरों या हाथों की कोमल त्वचा को बेधकर अन्दर प्रवेश कर जाते हैं और मनुष्य संक्रमित हो जाता है। त्वचा में प्रवेश करने के पश्चात् इन्हें रूधिर वाहिनियों द्वारा हृदय और कुपकुसों में ले जाया जाता है। इसके पश्चात् ये वायु नली से होकर क्षुद्राँत्र में चले जाते हैं। जहाँ वे अन्त में वयस्क कृमियों में परिवर्धित हो जाते हैं।

    ऐकिलोस्टोमिऐसिस रोग में उदराँत्रीय गड़बड़ी (gastrointestinal disturbances), रक्तहीनता (anaemia) और तंत्रिक अनियमितता (nervous disorders) विशेष्ज्ञ रूप से होते है। इसके रोगी का चेहरा पीला और दुर्बल दिखाई देता है और प्रायः चक्कर आने, कानों में झनझनाहट और सिर दर्द की शिकायत होती है। इसमं मतली और वमन (vomiting) बहुधा होते हैं। यदि रोग अधिक तीव्र हो जाता है तो पुरुष नपुंसक हो जाते हैं ओर महिलाओं को मासिक धर्म (menstruation) बन्द हो जाता है।

टेट्राक्लोरोईथेन (tetrachloroethane) और कार्बन टेट्राक्लोराइड (carbon tetra chloride) हुककृमि से होने वाली बीमारियों की, चिकित्सा के लिए सुरक्षित एवं प्रभावकारी औषधियाँ हैं।

3. ऐन्टेरोबिऐसिस (Enterobiasis)-

यह रोग एन्टेरोबियस वर्मिकुलैरिस (Entero bius verrmicularis) नामक कृमि द्वारा उत्पन्न होता है, जिसे सामान्य रूप से पिन कृमि (pin worm) या सीट कृमि (seat worm) कहते हैं। ये छोटे-छोटे सफेद कृमि लगभग 6 या 7 मिली लम्बे होते हैं, ओर बड़ी आँत के ऊपरी भाग में रहते हैं। इनकी मादा बड़ी आँत तथा मलाशय से बाहर आकर गुदा के आस-पास त्वचा के वलनों में असंख्य अण्डे देती हैं। जिससे इस भाग में बेहद खुजली होती है। जब गुदा के आस-पास खुजाया जाता है तो वहाँ की त्वचा पर लगे अण्डे आसानी से हाथों की अंगुलियों तथा नाखूनों में लग जाते हैं, तथा भोजन के साथ निगल लिए जाते हैं। आमाशय में अण्डों से बच्चे निकलते हैं और किशोर बड़ी आंत में प्रवास कर जाते हैं जहाँ वे वयस्क कृमियों में परिवर्धित हो जाते हैं।

    पिनकृमि का संक्रमण वयस्कों की अपेक्षा बच्चों में अधिक होता है। गुदा के चारों और तीव्र खुजली, भूख कम लगना, अनिद्रा, शय्या मूत्रण (bed-wetting), दाँतो का पीसना (grinding of teeth), मतली (mausea) और वमन (vomiting) इस रोग के लक्षण हैं। लड़कियों में पिन-कृमियों द्वारा जनन अंगों में खुजली के कारण शीघ्र लैंगिक इच्छा को उत्पन्न करता है।

    पिन कृमियों की चिकित्सा के लिए पाईपेरैजीन (piperazine) अत्यन्त प्रभावकारी औषधि है। इसके रोगी को सोने से पूर्व और सोकर उठते ही अपने परिगूदीय (perianal) भाग को गर्म जल और साबुन से साकल करना चाहिए।

4. ट्राइक्यूरिऐसिस (Trichuriasis)-

यह रोग ट्राइक्यूरिस ट्राइक्यूरा (Trichiuris trichura) द्वारा उत्पन्न होता है, जिसे सामान्यतः कशाकृमि (whipworm) कहा जाता है। ये कृमि बड़ी आंत में मुख्यकर अंधनाल (caecum) या वर्मीकॉर्म अपेंडिक्स में रहते हैं। इनकी मादा प्रतिदिन असंख्य अण्डे देती हैं, जो विष्ठा के साथ बाहर निकल जाते हैं। ये अण्डे देती हैं, जो विष्ठा के साथ बाहर निकल जाते हैं। ये अण्डे दूषित फलों और कच्ची सब्जियों को खाने तथा दूषित जल पीने से मनुष्य में प्रवेश करते हैं। ये मक्खियों द्वारा भी फैला जा सकते हैं। आँत में इन अण्डों से लारवे निकल आमते हैं जो वयस्क कशा कृमियों में परिवर्धित हो जाते हैं।

    कशाकृमि रोग से पीड़ित रोगी को मतली (nausea), वमन (vomiting), कब्ज (constipation), सिर दर्द, और कुछ ज्वर की शिकायत रहती है। यहाँ तक कि ऐपेंडिसाइटिस (appendicitis) से मिलता-जुलता पैरॉक्सिल्मल पीड़ा (paroxyimal pain) भी होती है। जब इसकाक प्रकोप अधिक तीव्र हो जाता है तो रक्तहीनता और इओसिनोफीलिआ रोग भी हो जाते हैं।

    ओसैौल (osarsol) या ऐसीटार्मोन (acetarsone) तथा डाइथिएजेनीन (dithiazanine) नामक औषधियाँ कशा कृमियों को शरीर से बाहर निकालने हेतु प्रयोग में लाई जाती हैं।

5. ट्राइकिनोसिस (Trichinosis)-

यह रोग ट्राइकिनेला स्पाइरैलिस (Trichinella spiralis) या ट्राइकिकना कमियों द्वारा उत्पन्न होता है। अमेरिका में यह रोग बहत सामान्य है। यह कच्चा माँस, विशेषकर सुअर का कच्चा मांस खाने से एक दूसरे मनुष्य में जाता है। जब मनुष्य इसके पुटीभूत लारवे सहित सुअर के कच्चे या अधूरे उबले माँस को खाता है तो इससे संक्रमित हो जाता है। आँत में पहुँचकर लारवे पुटियों से बाहर हो जाते हैं और लैंगिक रूप से परिपक्व वयस्क में परिवर्धित हो जाते हैं। मादा द्वारा दिए गए अण्डों से निकले शिशु लारवे रुधिर प्रवाह में प्रवेश कर जाते हैं और वहाँ से वक्षस्थल तथा टाँगों की पेशियों में पहुँचकर पुटीभूत हो जाते हैं।

    ट्राइकिनोसिस रोग के प्रारम्भिक लक्षण, मलती (nausea), वमन (vomiting), चेहरे ओर नेत्र पलकों पर गाँठे (oedema of face and eyelids) तथा ज्वर, होते हैं। इन लक्षणों के पश्चात् पेशीय पीड़ा अनुभव की जाती है। रोगी भोजन को चबाने, निगलने , सांस लेने और अपनी भुजाओं तथा टाँगों को घुमाने में पीड़ा का अनुभव करता है। इस रोग की कोई निश्चित चिकित्सा नहीं है।

6.स्ट्रॉन्जिलॉयडोसिस (Strongyloidosis) 

यह रोग स्ट्रॉन्जिलॉइडीस स्टेरकोरेलिस (Strongyloides stercoralis) द्वारा उत्पन्न होता है, जिसे सामान्यतः धागा कृमि कहते हैं। यह आहार नाल के आस्तर पर आक्रमण करता है। इसकी मादा बड़ी संख्या में अण्डे देती है जो मल के साथ बाहर निकल कर रैडिटिरूप लारवा (habditiform larvae) में परिवर्धित हो जाते हैं। इसके पश्चात् ये फाइलैरीरूप लारवों (filariformlarvae) में बदल जाते हैं, जो नंगे पैर चलने वाले मनुष्य की त्वचा को बेधकर उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।

    धागा कृमि का रोगी मतली (nausea), चक्कर आना (dizziness) और खूनी अतिसार (bloody diarrhoea) की शिकायत करता है क्योंकि आँत के श्लेष्मल स्तर और ग्रन्थियों में इसकी उपस्थिति के कारण घाव बन जाते हैं। इस रोग में वमन (vomiting), खांसी एवं ज्वर भी हो सकते हैं।

जेन्शियन वायलेट (gentian violet) धागा कृमियों की चिकित्सा के लिए सबसे अच्छी प्रभावशाली औषधि है। इसके अलावा इस रोग में डाइथिऐजमीन (dithiazamine) भी अच्छा प्रभाव रखती है।

7. फाइलेरिऐसिस या ऐलीफैन्टिऐसिस (Filariasis or elephantiasis)-

इस रोग को उत्पन्न करने वाला जीव वूचेरेरिआ बैंक्रोफ्टाई (Wucheraria bancrofti) नामक निमैटोड होता है, जो सामान्यतः काइलेरिआ कृमि कहलाता है। ये छोटे-छोटे कृमि लसीका तंत्र (lymphatic system) और संयोजी ऊतकों में रहते हैं और रात को परिभ्रमण करते हुए रुधिर में भी पाए जाते हैं। इनका संक्रमण क्यूलेक्स मच्छर द्वारा फैलता है। मैथुन क्रिया के बाद मादा कृमि किशोरों (juveniles) को जन्म देती है, जिन्हें माइक्रोफाइलैरिआई (microfilariae) कहते हैं। रात को ये किशोर त्वचा की रुधिर केशिकाओं में आ जाते हैं जिससे कि मच्छर द्वारा चूंसे जाने वाले रुधिर के साथ चूँस लिए जाएँ। मच्छर इन्हें दूसरे मनुष्य के शरीर में प्रेषित कर देता है और ये लसीका वाहिनियों में प्रवेश करके वयस्क परजीवी में परिवर्धित हो जाते हैं।

    फाइलेरिआ कृमियों के संक्रमण के कारण उपांगों, वृषण कोषों (scrotum) और स्तनों (mammae) में अति वृद्धि हो जाती है। परजीवी कृमियों द्वारा लसीका परिवहन अवरुद्ध हो जाने के कारण इन अंगो में सूजन आ जाती है, जिसके फलस्वरूप लसीका वाहिनयाँ और ग्रन्थियाँ सूजकर कूल जाती हैं।

    फाइलेरिआ कृमियों के उन्मूलन के लिए कोई प्रभावकारी औषधि नहीं है। सायेनिन रंग (cyanine dyes) और डाइएथिलकाईमेजीन (diethylcarbamazine) के प्रयोग से कुछ सफलता मिलती है। अधिक बड़ी सूजन को कभी-कभी शल्य चिकित्सा द्वारा भी दूर किया जाता है।

(II) ट्रिमैटोडिऐसिस (Trematodiasis)-

वे रोग जो ट्रिमैटोड हेल्मिन्थों द्वारा उत्पन्न होते हैं-ट्रिमैटोडिऐसिस (trematodiasis) के अन्तर्गत आते हैं। मनुष्य के ऐसे कुछ सामान्य रोग निम्नलिखित हैं-- 

1. ऑपिस्थाकि ऐसिस या क्लोनॉकिऐसिस (Opisthorchiasis or clonorchiasis)-

यह रोग ऑपिस्थार्किस या क्लोनॉर्किस साइनेन्सिस (Opisthorchis or Clonorchis sinensis) द्वारा उत्पन्न होता है। यह कृमि पित्त वाहिनियों में रहता हो यह रोग चीन, जापान, कोरिया, वियतनाम ओर भारत में अधिक पाया जाता है। बिना उबली या अधकचरी उबली ऐसी मछलियों, जिनमें इसके मेटासर्केरिआई (metacer cariae) रहते हैं, के खाने पर मनुष्य में इसका संक्रमण होता है। रोगी की पित्त वाहिनियों के अन्दर हजारों वयस्क फ्लूक पाये जाते हैं जिनसे पित्त वाहिनियों की भित्तियाँ मोटी हो जाती है। जब इसका संक्रमण तीव्र हो जाता है तो सिरोसिस (cirrhosis) हो जाता है। जिससे अन्त में मृत्यु हो जाती है। 
    इसके संक्रमणों को दूर करने के लिए जेंशियन वायलेट (gentian violet) एवं क्लोरोक्विन (chloroquine) सहायक सिद्ध हुई है। इसकी रोकथाम अति महत्वपूर्ण है। सभी स्वच्छ जलीय मछलियों को खाने से पूर्व भली-भाँति उबाल लेना चाहिए।

2. फैसिओऑप्सिरेसिस (Fasciolopsiasis)-

भारत में यह रोग आँत्र फ्लूक फैसिओलॉप्सिस फ्युएलीबोर्नी (Fasiolopsis fuelleborni) द्वारा उत्पन्न होता है। यह घोंघे को मध्यस्थ परपोषी की भाँति प्रयोग करता है। यह घोंघे के अन्दर एक स्पष्ट परिवर्धी चक्र व्यतीत करता है और मेटासर्केरियाई उत्पन्न करता है, जो घोंघे के बाहर आकर जलवासी पौधों पर चिपक जाते हैं। इन जलीय पौधों, विशेषकर जल-नटों को खाने से मनुष्य में संक्रमण होता है। आँत में ये मेटासरियाई तीन माह के अन्दर वयस्क कृमियों में परिवर्धित हो जाते हैं। ___ये कृमि आँ अस्तर को काटने का कार्य आरम्भ कर देते है, जिसके फलस्वरूप रुधिर स्त्राव और पीड़ा होती है। इसके बाद अतिसार (diarrhoea), मतली (nausea) और वमन (vomiting) होते हैं। इनके उन्मूलन के लिये हेक्सिलरेसोर्सिनोल (hexyire sorcinol) और 'क्रिस्टलाभ6' प्रतिहेल्मितिक पदार्थ सहायक होते हैं।

3. शिस्टोसोमिऐसिस (Schistosomiasis)-

यह रोग रुधिर फ्लूकों की तीन जातियों द्वारा उत्पन्न होता है

(i) शिष्टोसोमा मैन्सोनी (Schistosoma mansoni), (ii) शि. जैपोनिकम (S. japonicum), और (iii) शि. हिमैटोबियम (S. haematobiun)। ये तीनों जातियाँ रुधि पर प्रवाह में रहती हैं। यह रोग विश्व भर में दर-दूर तक फैला है। इनकी मादा रुधिर प्रवाह में ही असंख्य अण्डे देती है। शि. मैन्सोनी एवं शि. जैपोनिकम जातियों के अण्डे रुधिर प्रवाह से आँत में और शि. हीमैटोबियम के अण्डै मूत्राशय में आ जाते हैं और वहाँ से मल अथवा मत्र के साथ बाहर निकल जाते हैं। अण्डे जब जल के सम्पर्क में आते हैं तो उनसे मीरैसीडिआ लारवे निकलते हैं और घोंघे में प्रवेश कर जाते हैं घोंघे के अन्दर ये सर्केरिआ लारवों में परिवर्धित हो जाते हैं और घोंघे से बाहर आकर जल में स्वतन्त्रतापूर्वक तैरने लगते हैं। अन्त में मनुष्य की त्वचा को बेध कर अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। रुधिर प्रवाह के साथ भ्रमण करते हुए ये सर्केरिआ कुफ्फुसों में पहुँचकर वयस्क कृमि बन जाते हैं और फिर से रुधिर प्रवाह में आ जाते हैं।

    रुधिर फ्लूक दमा (asthmatic attacks) और हेपेटाइटिस (hepatitis) उत्पन्न करते हैं। बाद में ज्वर, पसीना, अतिसार, भार में कमी और भूख की कमी के लक्षण भी प्रकट होते हैं।

इस रोग की चिकित्सा के लिए ऐन्टिमनी यौगिकों (antimony compounds) का उपयोग करने की सलाह दी जाती है। शिस्टोसोमिऐसिस पर नियन्त्रण के लिए मल और मूत्र का स्वच्छतापूर्वक निबटारा कर देना चाहिये।

4. पैरागोनिमिऐसिस (Paragonimiasis)-

यह रोग कुफ्फुस फ्लूक पैरागोनिमस वेस्टर्मानी (Paragonimus westermani) द्वारा उत्पन्न होता है। इसका संक्रमण एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण और केन्द्रीय अमेरिका में दूर-दूर तक फैला है। ये फ्लूक कुफ्फुसों में सम्पुटीभूत अवस्था में पाये जाते हैं। इनके अण्डे रोगी के थूक के साथ बाहर त्यागे जाते हैं और जब जल के सम्पर्क में आते हैं तो मीरैसीडिआ लारवों में परिवर्धित हो जाते हैं। मीरैसीडिआ घोंघा परपोषी में पहुँच जाते हैं जहाँ ये सर्केरिआ में परिवर्धित हो जाते हैं। सर्केरिआ बाहर आकर केकड़ों (crabs) और क्रेकिशों (crayfish) में प्रवेश कर जाते हैं और मेटासर्केरिआ पुटियों में पुटीभूत हो जाते हैं। कच्चे या अधपके केकड़ों और क्रेफिशों को खाने से मनुष्य में संक्रमण हो जाता है। मनुष्य की आँत में विपुटीभवन होता है और किशोर (juveniles) फुफ्फुसों में प्रवेस कर जाते हैं, जहाँ वे परिपक्वता प्राप्त करके सम्पुटीभूत हो जाते हैं।

   फुफ्फुस कृमियों द्वारा दीर्घकालिक खाँसी उत्पन्न होती है जिसमें खूनी थूक आता है। अधिक संक्रमण होने पर वक्ष में पीड़ा, प्लूरिसी (pleurisy), छोटे साँस, ज्वर और रक्तहीनता हो जाती है। फुफ्फुस फ्लूकों की चिकित्सा के लिए एमेटीन हाइड्रोक्लोराइड (emetine hydrochloride) और सल्का औषधियों (sulpha drugs) के प्रयोग की सलाह दी जाती है।

(III) सेस्टोडिरेसिस (Cestodiasis)-

सेस्टोडिऐसिस रोग कीताकृमियों द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग के दो सामान्य रूप हैं


1. टीनिऐसिस (Taeniasis)-

यह रोग टीनिआ (Taenia) वंश की जातियों द्वारा उत्पन्न होता है। टी. सोलियम (T. solium) या सुअर माँस कीताकृमि (pork tape worm) और टी. सेजिनेटा (T. saginata) या गोमांस कीताकृमि (beef tapeworm) इस वंश मकी मुख्य जातियाँ हैं। सुअर या गाय के ऐसे कच्चे या आधे उबले माँस को खाने से जिसमें इनके पुटि-पुच्छक (cysticerci) होते है, मनुष्य में इनका संक्रमण होता है, आँत में पुटी-पुच्छक वयस्क कीता कृमियों में परिवर्धित हो जाते हैं।

    आँत में कीताकृमियों की उपस्थिति के कारण जठरांत्रीय (gastrointestinal) अनियमितता उत्पन्न होती हैं। कुछ रोगी भूख पीड़ा की शिकायत करते हैं। रक्तहीनता की दशा भी विकसित हो सकती है। ऐटेब्रिन (Atabrin) या क्विनैक्रीन हाइड्रोक्लोराइड (quinacrine hydrochloride) इसकी चिकित्सा की औषधि हैं। भली-भाँति पकाये गए सुअर और गोमांस को खाने से इस रो की रोकथाम की जा सकती है।

2. उदाशय रोग (hydatid disease)-

यह रोग उदाशय कृमि (hydatid worm), एकाइनोकोकस ग्रेनुलोसस (Echinococcus granulosus) द्वारा उत्पन्न होता है। इस कृमि का मुख्य या प्रारम्भिक परपोषी कुत्ता होता है, जिसकी आँत के अन्दर ही अण्डे दिए जाते हैं। ये अण्डे मल के साथ बाहर आ जाते हैं और गोलांकुशों (onchospheres) में परिवर्धित हो जाते हैं। इन गोलांकुशों से युक्त अण्डों से प्रदूषित भोजन को खाने और जल को पीने से मनुष्यों में इनका संक्रमण होता है। मनुष्य में इन उदाशय पुटियों का यकृत, कुपकुसों और अन्य ऊतकों में परिवर्धन होता है और इस प्रकार परजीवी जीवन चक्र का अन्त होता है। ये पुटियाँ ऊतकों में सूजन उत्पन्न कर देती हैं। मस्तिष्क एवं वृक्क में इन पुटियों की उपस्थिति घातक सिद्ध हो सकती है। इसकी चिकित्सा के लिए भी टीनिऐसिस के लिए प्रयुक्त औषधि का ही प्रयोग किया जाता है।
Kkr Kishan Regar

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