निमेटोड जन्तु के आवास, संरचना एवं जीवन-वृत्त

निमेटोड जन्तु के आवास, संरचना एवं जीवन-वृत्त 


स्वभाव एवं आवास (Habits and Habitat)-

    फाइलेरियाई कृमि मानव रुधिर और लसीका का हानिकारक परजीवी है। यह द्विपरपोषित (digenetic) परजीवी है, जो अपना जीवन-वृत्त दो परपोषियों में पूरा करता है। मनुष्य इसका प्रमुख परपोषी है, जिसमें वयस्क कृमि रहते हैं। मध्यस्थ परपोषी रुधिर चूसने वाला मादा मच्छर होता है। वूचेरेरिआ बैंक्रोफ्टाई का मध्यस्थ परपोषी भारत और चीन में क्यूलैक्स पाइपिएन्स (culex pipiens) है, पैसिफिक द्वीपों में (कीजी तथा न्यू कैलेडोनिया को छोड़कर) एनोफेलीस पन्कटेटस (Anopheles punctatus) तथा पोलीनेसियन द्वीपों में ऐडीस पोलीनेसिएन्सिस (Aedes polynesiensis) जाति का मच्छर होता है। वयस्क कृमि मनुष्य की लसिका ग्रन्थियों एवं वाहिनियां में कुण्डलित रहते हैं और प्रायः लसीका के परिवहन में अवरोध उत्पन्न करते हैं।

आकारिकी (Morphology)-

वयस्क कृमि तन्तुरूप बेलनाकार होते हैं और इनके शरीर के दोनों सिरे मुथरे होते हैं। इनका रंग क्रीमाभ श्वेत होता है। नर और मादा अलग-अलग होते हैं और उनमें लैंगिक द्विरूपता (Sexual dimorphism) स्पष्ट दिखाई। देती है। मादा कमि की लम्बाई 65 से 100 मिमी और व्यास 0.25 मिमी जबकि नर की लम्बाई 40 मिमी और व्यास 0.1 मिमी होता है। मुख्य सामान्य और ओष्ठ विहीन होता है। ग्रसनी या ग्रसिका को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, आगे का भाग पेशीय और पीछे का ग्रन्थीय होता है। ग्रसिका बल्ब का अभाव होता है। अन्य निमेटोड जन्तुओं की भाँति इसकी आँत्र भी सामान्य होती है नर कृमि का पश्च सिरा नीचे की ओर वक्रित होता है और इसी भाग में अनेक जननिक पैपिलियाँ (genital papillae), पुच्छ पक्षक (caudal alae) और दो असमान मैथुन कंटक (copulatory spicules) होते हैं। मादा का जननिक छिद्र (genital aperture or vulva) ग्रसनी प्रदेश में अधर तल पर होता है, और इसमें एक नाखरूपी (pyriform) उत्क्षेपक (ejector) या अण्क्षेपक (ovijector) होता है।

जीवन-वृत्त (Life Cycle)


1. मैथुन (Copulation)-

जब एक ही लसीका ग्रन्थि में नर और मादा दोनों कृमि होते हैं तो उनमें मैथुन क्रिया होती है।

2. मानव में लारवा का विकास (Larval development in man)-

मादा जरायुज (viviparous) सम्भवतः अण्डजरायुज (ovoviviparous) होती है और असंख्य किशोरों को जन्म देती है जिन्हें माइक्रोफाइलेरियाई (microfilariae) कहते हैं। ये अति अपरिपक्व अवस्था में उत्पन्न होते हैं और वास्तव में ये किशोर न होकर भ्रूण होते हैं। ये सूक्ष्मदर्शीय, लगभग 0.2 से 0.3 मिमी लम्बे एवं कोमल क्यूटिकली आवरण में बन्द होते हैं। इनमें वयस्क की विविध संरचनाओं के अवशेष भी होते हैं। इन माइक्रोकाइलेरिआ की शारीरिक संरचना में चपटी अधिचर्म कोशिकाओं का एक सतही आवरण ओर अन्दर की ओर केन्द्रक युक्त कोशिकाद्रव्य का एक स्तम्भ होता है। अगले सिरे से पीछे की ओर क्रमशः भावी मुख या मुख शूकिका (orl stylet), तंत्रिका वलय पट्टी (nerve ring band), वृक्कक छिद्र (nephridiopore), रेनेट कोशिका (renette cell), गहरा रंगीन आन्तरिक पिण्ड (inner mass), 4 बड़ी कोशिकाएँ (4 large cells) और भावी गुदा (anus) की प्रमुख संरचनाएँ होती हैं। लसीका वाहिनियों में मुक्त हुए माइक्रोकाइलेरियाई शीघ्र ही रुधि पर वाहिनियों में प्रवेश कर जाते हैं और सक्रिय गति करते हुए रुधिर के साथ परिभ्रमण करने लगते हैं। अन्त में वे वक्षस्थल की गहरी रुधिर वाहिनियों में प्रवास कर जाते हैं। परन्तु जब तक मध्यस्थ परपोषी मच्छर द्वारा रुधिर के साथ चूस नहीं लिये जाते तब तक उनमें आगे परिव नि नहीं होता है। 
Larval development in man
    मानव के रुधिर में माइक्रोफाइलेरियाई दिन और रात में क्रमिक आवर्तिता प्रदर्शित करते हैं जिसे दिवा ताल (diur nal rhythm) कहा जाता है। दिन के समय ये बड़ी और गहराई में स्थिर रुधिर वाहिनयों में रहते हैं परन्तु रात को या सो जाने पर ये त्वचा के निकट की वाहिनियों में आ जाते हैं जिससे उन्हें रात्रिचर क्यूलेक्स (culex) या ऐडीस (Aedes) या एनोफेलीस (Anopheles) मच्छर रुधिर के साथ आसनी से चूस सकें। ये मच्छर मध्यस्थ परपोषी की भाँति कार्य करते हैं। जिन स्थानों में मच्छर दिन के समय विचरण करते हैं, वहाँ पर इनकी क्रमिक आवर्तिता भी पलट जाती है। यदि संक्रमित मनष्य के रुधिर के साथ इन्हें मध्यस्थ पररपोषी द्वारा चूसा नहीं जाता है तो अन्त में रुधिर के अन्दर इनकी मृत्यु हो जाती है।
Larval development in man

3. मछर के अन्दर परिवर्धन (Development in mosquito)-

मच्छर के आमाशय में पहुँचकर माइक्रोकालेरियाई बाहरी आवरण को त्यागकर आमाशय भित्ति में प्रवेश करके वक्षस्थलीय माँस पेशियों अथवा पक्ष पेशीन्यास (wing musculature) में प्रवास कर जाते हैं, जहाँ इनमें कायान्तरण (metamorphosis) होकर वृद्धि होती है। इन पेशियों में ये पहले स्थल सॉसेज-आकृति (plump sausage shape) में बदलते हैं। फिर एक लम्बा आकार १ पारण कर लेते हैं और अन्त में तृतीय संक्रमणकारी अवस्था के पतल-दुबले किशोर में परिवर्तित हो जाते हैं। माइक्रोफाइलेरियाई लगभग 10 दिन में दो बार निर्मोचन करके तृतीय अवस्था के लारवे बनते हैं जिनकी लम्बाई लगभग 1.5 मिमी होती है। अब ये संक्रमणकारी लारवे मच्छर के लेबियम (labium) शुण्ड (proboscis) में प्रवास कर जाते हैं।

4. नए मानव परपोषी का संक्रमण (Infection of new human host)-

जब यह मच्छर किसी स्वस्थ मानव परपोषी की त्वचा में अपेन शुण्ड से बेधता है तो संक्रमणकारी लारवे उसके लेबियम से निकलकर उस मनुष्य की त्वचा पर आ जाते हैं। त्वचा के ऊपर से ये मच्छर द्वारा बनाए गये घाव में प्रवेश करके मनुष्य के रुधिर में पहुँच जाते हैं। नये मानव परपोषी में ये किशोर रुधिर से लसीका ग्रन्थियों एवं लसीका वाहिनियों में चले जाते हैं, जहाँ पहुँचकर ये कुण्डलित हो जाते हैं और आगे परिवर्धन करके वयस्क बन जाते हैं। वयस्क मैथुन करते हैं और मादा कृमि माइक्रोफाइलेरियाई उत्पन्न करने लगते हैं।

काइलेरियता या कीलपाँव (Filariasis or Elephantiasis)-

सूत्र कृमि (filarial worm) वूचेरेरिआ बैंक्राफ्टाई (Wuchereria bancrofti) मानव के लसीका तन्त्र में रहते हैं, जहाँ वे लसीका वाहिनियों को अवरुद्ध करके लसीका के प्रवाह को बन्द कर देते हैं। इसी कारण एक गम्भीर परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसे एलीफैन्टिएसिस (elephantiasis) कहते हैं। इसमें पादों या शरीर के अन्य भागों का परिमाण अत्यन्त बड़ा हो जाता है।

1. निदान (Diagnosis)-

फाइलेरिऑइड जन्तुओं का निदान अभिरंजन (staining) के पश्चात् माइक्रोफाइलेरियाई का अध्ययन करके होता है। अलग-अलग जातियों के माइक्रोफाइलेरियाई को उनकी विशेष आकृति और आकारिकीय लक्षणों के अनुसार पहचाना जा सकता है।

2. रोग जनन (Pathogenesis)-

कम संक्रमण से कोई गम्भीर लक्षण उत्पन्न नहीं होते हैं। इसके कारण काइलेरिआ ज्वर, मानसिक मन्दता (mental depression), सिर दर्द, इत्यादि हो जाते हैं। परन्तु जब संक्रमण अधिक हो जाता है, तो लसीका ग्रन्थियों और वाहिनियों में जीवित और मृत कृमि इकट्ठे हो जाते हैं जिससे लसीका वाहिनियाँ तथा ग्रन्थियाँ अवरुद्ध हो जाती है जिसके फलस्वरूप अनेक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इनमें कीलपाँव अर्थात् एलिफेन्टिएसिस (elephantiasis) या फाइलेरिएसिस (filari asis) रोग प्रमुख है जिससे शरीर का प्रभावित भाग अत्यन्त सूज जाता है। इस रोग में लसीकीय अवरोध के कारण लसीका परिभ्रमण तन्त्र में न पहुँचकर अंगों में ही इकट्ठा होता रहता है जिससे वे सूज जाते है अथवा आश्चर्यजनक अनुपात में वृद्धि कर जाते हैं। इस दशा को लिम्फेडेमा (lymphedema) कहते हैं। सामान्यतः पादों का निचला भाग, नर में सक्रोटम, पैर तथा स्तन ग्रन्थियाँ प्रभावित होती हैं। इसके अलावा लसीका वाहिनियों तथा ग्रन्थियों से सूजन हो जाने के कारण क्रमशः लिम्फैन्जाइटिस (Iymphangitis) और लिम्फैडेन्टिस (lymphadentis) रोग हो जाते हैं। गम्भीर अवस्थाओं में प्रभावित अंगों में अपसामान्य योजी ऊतक का निर्माण हो जाता है, जिससे और अधिक जटिलता उत्पन्न हो जाती है।

3. चिकित्सा और नियन्त्रण (Therapy and control)-

अभी तक इसकी कोई उपर्युक्त या सन्तोषजनक चिकित्सा ज्ञात नहीं हो सकी है। हेटेरैजन (heterazan) और ऐन्टिमनी तथा आर्सेनिक के यौगिकों के प्रयोग से परिभ्रमण में होने वाले सूक्ष्म काइलेरियाई का उन्मूलन करके इसके संक्रमण को कम अथवा समाप्त किया जा सकता है। मेल डब्ल्यू (Mel w) तथा पैरामिलेमिनिल फिनाइल स्टिबोनेट (Paramelaminyl phenyl stibonate-MSb) विशेष रूप से प्रभावी औषधियाँ हैं। मच्छरों से सुरक्षा रखना इस रोग से बचने का एक प्रमुख उपाय है।
Kkr Kishan Regar

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