सूक्ष्म जीव || Microorganism

सूक्ष्म जीव

(Microorganism) 


    प्रकृति में बहुत-से जीव अत्यन्त सूक्ष्म नग्न-कणों के रूप में होते हैं। ये जीव इतने छोटे होते हैं कि इन जीवों को साधारण प्रकाश सूक्ष्मदर्शी से भी नहीं देखा जा सकता। इन जीवों को सिर्फ इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से ही देखा जा सकता है। सूक्ष्म जीव विभिन्न प्रकार के होते हैं, जिनमें से मुख्य निम्न प्रकार हैं 

1. जीवाणु (Bacteria)

    सर्वप्रथम सन् 1683 में हॉलैण्ड के निवासी एण्टोनी वॉन लीवेनहॉक ने अपने बनाये हुए सूक्ष्मदर्शी के द्वारा जल, लार एवं दाँत से खुर्चे मैल को देखा। उन्हें उसमें अनेक सूक्ष्म-जीव दिखलाई दिये। ये जीवाणु थे। एरनबर्ग ने इन्हें सबसे प्रथम बैक्टीरिया नाम दिया। लुई पाश्चर ने किगवन पर कार्य किया और बतलाया कि यह जीवाणु द्वारा होता है। रॉबर्ट काँच ने सिद्ध किया कि चौपायों में होने वाली कालस्फोट बीमारी और मनुष्य में क्षय रोग तथा हैजा का कारण भी जीवाणु हैं। इसी वैज्ञानिक ने प्रथम बार जीवाणुओं का कृत्रिम संवर्धन किया। अब जीवाणुओं का अध्ययन इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि जीवाणु अध्ययन की एक अलग शाखा बन गई है, जिसे जीवाणु विज्ञान कहते हैं। 

वासस्थान

जीवाणु सर्वव्यापी हैं तथा जल मृदा, वायु, जन्तुओं एवं पौधों पर पाये जाते हैं। ये बर्फ व गर्म जल के झरनों में 78°C तापक्रम पर भी पाये जाते हैं।

    जीवाणु सबसे सूक्ष्म तथा साधारण पौधे हैं। ये प्रायः एककोशीय होते हैं, परन्तु कभी-कभी कोशाओं की संख्या 20 तक होती है। इनकी लम्बाई 2 से 5 माइक्रोन (u) तक होती है। कुछ जीवाणु 80u तक की लम्बाई के होते हैं। (1 = .001 m.m.)। जीवाणु अपनी विभिन्न आकृतियों के आधार पर निम्न प्रकार के हो सकते हैं

1. गोलाकार ये निम्न प्रकार के हो सकते हैं-
सूक्ष्म जीव || Microorganism
सूक्ष्म जीव

(i) डिप्लोकॉक्साई (Diplococci) ये जोड़ों में रहते हैं, जैसे—Diplococcus pneumonia.

(ii) टेट्राड (Tetrads) जब ये एक चौरस पैकेट में रहते हैं।

(ii) सारसिनी (Sarcinae)—जब ये 8, 64 या अधिक में घनाकृति पैकेट (cubical packet) में रहते हैं, जैसे sarcinae

(iv) स्टैफिलोकॉकसाई (Staphylococci) जब ये झुण्ड में रहते हैं, जैसे Staphylococcus aurus

(v) स्ट्रैप्टोकॉकसाई (Streptococci) जब ये जंजीर के रूप में रहते हैं, जैसे—Streptococcus lactis

(vi) माइक्रोकॉम्क्साई (Micrococci)-जब ये अलग-अलग रहते हैं, जैसे Micrococcus

(2) सपिलाकृतिक - स्पाइरिलाइ (Spirilli = Spiral or Helical) स्पाइरिलाई नाम ग्रीक भाषा के (spira) शब्द से बना है जिसका अर्थ है, चक्र (coil), जैसे (spirillum ruprem)

(3) शलाकवृत (Bacillus = rod-shaped) जब ये डण्डे के आकार के होते हैं। यह ग्रीक भाषा के शब्द (Bacillum) से बना है, जिसका अर्थ है एक छड़ी (Stick)। ये दो प्रकार के होते हैं, जैसे

(i) डिप्लोबैसिलस (Diplobacillus)-जब ये जोड़ों में रहते हैं। 
(ii) स्ट्रैप्टोबैसिलस (Streptobacillus)—जब ये जंजीर के रूप में रहते हैं, जैसे Bacillus anthracis

(4) कॉमा (Comma)—ये एक कौमा (,) की तरह के जीवाणु होते हैं, जैसे Vibrol 

गतिशीलता

    जीवाणु चल (motile) या अचल (nonmoile) दोनों प्रकार के होते हैं। चल जीवाणुओं के कशाभ (flagella) होते हैं और अचल में नहीं होते। कशाभ के आधार पर जीवाणु निम्न प्रकार के हो सकते हैं

(i) मोनोट्राइकस (Monotrichous)-जब केवल एक कशाभ जीवाणु के एक सिरे पर होता है।

(ii) लाफोट्राइकस (Lophotrichous)—जब जीवाणु के एक सिरे पर कशाभों का एक गुच्छा होता है।

(iii) एम्फीट्राइकस (Amphitrichous)-जब जीवाणु के प्रत्येक सिरे पर कशाभों का गुच्छा होता है।

(iv) पेरिट्राइकस (Peritrichous) जब जीवाणुओं के सम्पूर्ण शरीर पर कशाभ होते हैं।
पेरिट्राइकस (Peritrichous
 पेरिट्राइकस


जीवाणुओं का वर्गीकरण (Classification of Bacteria)


जीवाणुओं का छोटा आकार होने के कारण इनका वर्गीकरण कठिन रहा है। Bergey का वर्गीकरण सबसे अधिक वैज्ञानिकों द्वारा माना जाता है, जिसके अनुसार जीवाणुओं को निम्न 10 ऑर्डरों में बाँटा गया है

1. सीडोमोनाडेस (Pseudomonadales) 
2. क्लेमाइडोबेक्टीरिएल्स (Chlamydobacteriales) 
3. हाइफोमाइक्रोबिएल्स (Hyphomicrotiales) 
4. यूबैक्टीरिएल्स (Eubacteriales) Income
5. एक्टीनोमाइसीटेल्स (Actinomycetales) 
6. बेजियाटोएल्स (Beggiatoales) 
7. कैरियोफेनेल्स (Caryophanales) 
8. मिक्सोबैक्टीरिएल्स (Myxobacteriales) 
9. स्पाइरोकीटेल्स (Spirochaetales) 
10. माइकोप्लास्मेटेल्स (Mycoplasmatales)

जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व

(Economic Importance of Bacteria) 

(1) कृषि में (In Agriculture) 

(अ) भूमि उर्वरता में (In soil fertility)—

कुछ जीवाणु भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं। सभी पौधों के लिए नाइट्रोजन आवश्यक है। नाइट्रोजन वायुमण्डल में लगभग 80 प्रतिशत होती है। पौधे नाइट्रेट्स के रूप में नाइट्रोजन लेते हैं। पृथ्वी में नाइट्रेट्स निम्न प्रकार से बनते हैं

(i) नाइट्रीफाइंग जीवाणु 

ये जीवाणु अमोनिया की नाइट्रोजन को नाइट्राइट (NO,) में बदल देते हैं, जैसे नाइट्रोसोमोनास और नाइट्राइट यौगिकों को नाइट्रेट (NO) में बदल देते हैं, जैसे नाइट्रोबेक्टर (Nitrobacter)। 

(ii) नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणुओं द्वारा 

जीवाणु या तो पृथ्वी में स्वतन्त्र रूप से पाये जाते हैं, जैसे (Azotobacter) तथा (Clostridium) अथवा लैग्युमिनोसी कुल के पौधों की जड़ों की गाँठों (root nodules) में पाये जाते हैं, जैसे Rhizobium leguminosarum | इन जीवाणुओं में वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को नाइट्रोजन यौगिकों में बदलने की सामर्थ्य होती है।

(iii) मृत पौधों तथा जन्तुओं का सड़ना

कुछ जीवाणु पौधों और जन्तुओं के मृत शरीर पर आक्रमण करके उनके जटिल यौगिकों को सरल पदार्थों में जैसे कार्बन डाई ऑक्साइड, पानी, नाइट्रेट, सल्फेट इत्यादि में बदल देते हैं।

(2) डेरी में 

बैक्टीरियम लैक्टिसाई एसिडाइ और बैक्टीरियम एसिडाइ लैक्टीसाई दूध में पाये जाते हैं। ये जीवाणु दूध में पायी जाने वाली लैक्टोस (lactose) शर्करा का किण्वन करके लैक्टिक अम्ल (lactic acid) बनाते हैं, जिसके कारण दूध खट्टा हो जाता है। दूध को 15 सेकण्ड तक 71°C तक गर्म करके शीघ्रता से ठण्डा करने (इस क्रिया को पाश्चुरीकरण कहते हैं) पर लैक्टिक अम्ल जीवाणुओं की संख्या कम हो जाती है, परन्तु जीवाणुओं के सभी बीजाणु और कोशायें नष्ट नहीं होती। इस प्रकार से दूध खट्टा तो होता है, परन्तु उसके खट्टा होने में साधारण दूध से अधिक समय लगता है।

लैक्टिक अम्ल जीवाणु (lactic acid bacteria) दूध में पाये जाने वाले casein नामक प्रोटीन की छोटी-छोटी बूंदों को एकत्रित करके दही जमाने में सहायता करते हैं।

    दही को मथने से मक्खन वसा की गोल बूंतें के रूप में निकलता है। मक्खन को गर्म करके घी तैयार किया जाता है। दूध में पाये जने वाले प्रोटीन केसीन (casein) के जमने पर उसे जीवाणुओं द्वारा फरमेण्ट किया जाता है, जिससे झागदार, मुलायम व भिन्न स्वाद वाला पदार्थ पनीर बनता है।

(3) औद्योगिक महत्त्व (Industrial Value) 

औद्योगिक दृष्टिकोण से जीवाणु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उनमें कुछ निम्नलिखित हैं

(i) एल्कोहल एवं एसीटोन (Alcohol and acetone)-

शर्करा के घोल से ब्यूटाइल एल्कोहल एवं एसीटोन का निर्माण (clostridium acetobatylicum) द्वारा किया जाता है।

(ii) तम्बाकू उद्योग में (In tobacco industry)-

Bacillus megathenium mycococcus आदि के द्वारा तम्बाकू की पत्ती क सुगन्ध एवं स्वाद बढ़ जाता है, जो कि इन जीवाणुओं की किण्वन क्रिया (fermentation) द्वारा होता है।

(ii) चमड़ा कमाने का उद्योग 

कुछ जीवाणु जन्तुओं की त्वचा पर पाये जाने वाले वसा (fats) आदि का विघटन कर देते हैं, जिससे त्वचा व बाल पृथक् हो जाते हैं और यह चमड़ा प्रयोग के योग्य हो जाता है।

(iv) सिरका उद्योग (Vinegar Industry)

सिरका (vinegar) का निर्माण शर्करा घोल (sugar solution) से mycoderma aceti नामक जीवाणु से होता है।

(v) रेशे का रेटिंग (Fibre Ratting)

 इस विधि से जूट (jute), पटसन (hemp) तथा सन (flax) के रेशे तैयार किये जाते हैं। फ्लक्स बनाने में लाइनम (linum usitiattissimurn) के तनों, हैम्प बनाने में cannatic sativa के तनों और जूट बनाने में corchorus capsularis के तनों की रेटिंग की जाते है। इस विधि में तनों को कुछ दिनों के लिए जल में डुबो देते हैं तथा जब तना सड़ने लगता है तो तनों को पीटकर रेशों को पृथक् कर लेते हैं। इस प्रकार रेशों में पृथक् करने को ही रेटिंग कहते हैं। यह क्रिया जल में पाये जाने वाले जीवाणु (clostridium butyrium) द्वारा होती है।।

(vi) चाय उद्योग में (Myerococcus Candisans)

द्वारा चाय की पत्तियों पर किण्वन क्रिया द्वारा क्यूरिंग (curing) किया जात है। इस क्रिया द्वारा चाय की पत्तियों में विशेष स्वाद आ जाता है।

(4) औषधियाँ—

कुछ प्रतिजैविकी औषधियाँ (antibiotics) जीवाणुओं की क्रिया द्वारा बनाई जाती है, जैसे Bacillus brevis और streptomyces की विभिन्न जातियाँ। इस प्रकार विटामिन B, Clostridium जवाणु की किण्वन क्रिया द्वारा बनाया जाता है।

2. विषाणु (Virus) 

    प्रकृति में अत्यन्त सूक्ष्म नग्न कणों के रूप में असंख्य विषाणु होते हैं। इन्हें साधारण प्रकाश सूक्ष्मदर्शी से भी नहीं देखा जा सकता। इन्हें वैज्ञानिक केवल इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी के आविष्कार के बाद ही देख पाये। अजीव तथा सजीव पदार्थ के तुलनात्मक अध्ययन में इनका विशेष महत्त्व होता है, वगेकि इनमें दोनों के लक्षण होते हैं। ये जीवों में भयंकर रोग उत्पन्न करते हैं। आनुवंशिकी का कई मौलिक समस्याओं के समाधान के लिए वैज्ञानिकों ने इनका विस्तृत उपयोग किया है। इनका अध्ययन जीव-विज्ञान की एक अलग शाखा, विषाणु, विज्ञान के अन्तर्गत होता है। 

आकार

    माप में विषाणु जीवाणुओं से भी छोटे, औसतन केवल 15 mu से 450 mu (= मिलीमाइक्रॉन millimicron = .0000001 मिमी.) होता है। अत: ये पोर्सलेन (porcelain) के सूक्ष्मतम छिद्रों में से निकल जाते हैं। शुकज्वर का विषाणु सबसे बड़ा और पालतू पशुओं के पैर एवं मुखरोग का सबसे छोटा होता है। आकृति में विषाणु सूत्रनुमा, गोल, बहुतलीय या टैडपोल जैसे होते हैं। 

इतिहास 

    मानव-जाति को रोग से मुक्त करने की लालसा ने 18वीं तथा 19वीं सदियों के कई वैज्ञानिकों को जीवाणुओं की खोज के लिए प्रेरित किया। इसी दौरान, वैज्ञानिकों को पता चला कि अनेक रोग जीवाणुओं से भी अधिक छोटे जीवों द्वारा होते हैं।

    विषाणु की प्रथम खोज का श्रेय रूसी वनस्पतिज्ञ, इवानोवस्की को है। इन्होंने सन् 1892 में, तम्बाकू की पत्ती में मोजैक रोग के कारण की खोज के दौरान, पता लगाया कि यह रोग जीवाणुओं से भी सूक्ष्म परजीवियों द्वारा होता है। इस रोग में पत्तियाँ चितकबरी होकर मुझ जाती है। इवानोवस्की ने ऐसी पत्तियों के रस को छानकर जीवाणु अलग कर दिये। छने रस में यह वाइरस को साक्षात् न देख पाये। जब इन्होंने इसे स्वच्छ पत्तियों पर मला तो पत्तियाँ रोगग्रस्त हो गयीं।

बीजेरिक, ल्योफलर तथा फ्रीश आदि ने पादपों एवं जन्तुओं के अनेक ऐसे रोगों का पता लगाकर इवानोवस्की की खोज की पुष्टि की। बीजेरिंग ने इन्हें जीवित तरल संक्रामक नाम दिया। इस प्रकार, प्रकृति में विषाणुओं का अस्तित्व स्पष्ट हो गया। वर्तमान सदी में तो इनके बारे में हमारे ज्ञान में आश्चर्यजनक प्रगति हुई है। मानव रोगों में सबसे पहले पीतज्वर का पता लगा कि यह एक प्रकार के विषाणु से होता है, जिसे मच्छर फैलाते हैं। आज हमें ज्ञात हो चुका है कि मनुष्य में जुकाम, इन्फ्लुएन्जा, चेचक, खसरा, गलसुआ, पोलियो, अलर्क रोग आदि कई अन्य महत्त्वपूर्ण रोग भी विषाणुओं द्वारा होते हैं। प्रत्येक विषाणुओं को इसके द्वारा उत्पन्न रोग पर ही आधारित नाम देते हैं, जैसे तम्बाकू मौजेक वाइरस।

अंग्रेज वैज्ञानिक ट्वार्ट तथा फ्रांसीसी वैज्ञानिक डी हेरिल ने एक बहुत ही रोचक विषाणु–बैक्टीरियोफेज (Bacteriophage) का प्ता लगाया जो संग्रहणी रोग से पीड़ित मनुष्य की आँत में पाये जाने वाले बैक्टीरिया-ईस्केराइकिया कोलाई का परजीवी होता

    यद्यपि वर्तमान सदी के शुरू में ही कई प्रकर के वाइरसों का पता लग चुका था, लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिक स्टेनले कई प्रयासों के बाद पहली बार तम्बाकू के मोजैक वाइरस (TMV) को क्रिस्टल के रूप में पृथक् करने में सफल हुए। इसी वर्ष इलेक्ट्रॉनसूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा गया कि यह वाइरस 300 mA (=3000 A) लम्बी सूक्ष्म छड़ों के रूप में होता है। बाद में सूक्ष्म गोलियों के रूप में पोलियो वाइरस को देखा गया। बैक्टीरियोफेज वाइरस की आकृति छोटे भेक शिशु के समान होती है।
चित्र : तम्बाकू के मोजैक वाइरस का एक भाग रचना (Structure)
तम्बाकू के मोजैक वाइरस का एक भाग 

रचना (Structure)

अत्यधिक आधुनिक तरीके से बॉडेन, डालिाटन आदि कई वैज्ञानिकों ने विषाणुओं की रचना का भी अध्ययन किया है। ये कोशाओं के समान नहीं बल्कि निष्क्रिय कणों के रूप में होते हैं, जिन्हें विरिऑन (virion) कहते हैं। प्रत्येक कण में, भीतर एक DNA या RNA का कुण्डलित सूत्र होता है और इसके चारों ओर प्रोटीन का मोटा, रक्षात्मक खोल जिसे कैस्पिड (caspid) कहते हैं। प्रोटीन खोल वरिऑन का करीब 94 प्रतिशत भाग और न्यूक्लीक अम्ल 6 प्रतिशत भाग बनाते हैं कैस्पिड प्राय: एक बहुतलीय सिर (head) और सँकरी, बेलनाकार या शंक्वाकार पूँह (tail) में विभेदित होता है। किसी किसी विषाणु में पूंछ के छोर पर छोर-प्लेट (end-plate) होती है, जिससे 6 पुच्छ तन्तु
A. इन्फ्लुएन्जा, B. बैक्टीरियोफेज, C. पोलियो का वाइरस
A. इन्फ्लुएन्जा, B. बैक्टीरियोफेज, C. पोलियो का वाइरस

(tail fibres) लगे रहते हैं। अधिकांश पादप विषाणुओं में भीतरी सूत्र राइबोन्यूक्लीक अम्ल (RNA) का, परन्तु अधिकांश जन्तु विषाणुओं में यह डिऑक्सीराबीन्यूक्लीक अम्ल (DNA) का होता है। कुछ में प्रोटीन खोल के बाहर प्रोटीन एवं लिपिड (वसा) पदार्थ का बना एक महीन आवरण होता है।

जनन एवं जीवन-चक्र

    स्वतन्त्र विषाणु न्यूक्लिओप्रोटीन का बना एक निर्जीव कण होता है। उपयुक्त सजीव कोशा के सम्पर्क में आते ही यह अपनी पूँछ द्वारा इससे चिपक जाता है और सक्रिय होकर स्वयं सजीवता का प्रदर्शन करता है। यह एक एन्जाइम, न्यूरैमिनिडेज (Neuraminidase), द्वारा पोषद कोशा की भित्ति के उस भाग को गला देता है, जहाँ यह चिपका रह जाता है। अब इसका न्यूक्लीक अम्ल का सूत्र तो पोषद कोशा में चला जाता है और प्रोटीन खोल बाहर रह जाता है। कुछ विषाणु पोषद कोशा की कला को गलाकर नहीं, वरन् इसमें समेकित होकर या फिर फैगासाइटोसिस द्वारा इसमें अपना न्यूक्लीक अम्ल सूत्र पहुँचाते हैं। पार्षद कोशा में पहुँचकर न्यूक्लीक अम्ल का सूत्र इसके पूरे मेटाबोलिज्म को ऐसा बदल देता है कि स्वयं सूत्र का ही बार-बार के द्विगुणन द्वारा तेजी से गुणन होने लगता है। अत: ऐसे ही अनेक सूत्र कोशा में बन जाते हैं। अन्त में प्रत्येक सूत्र के चारों ओर प्रोटीन खोल भी बन जाता है। पोषद कोशा क्षीण होकर फट जाती है और इसमें बने नवीन विषाणु कण मुक्त होकर अन्य कोशिकाओं पर हमला कर देते हैं।

    अनेक प्रकार के कीट (मक्खी, मच्छर, टिड्डे आदि) विषाणुओं को एक पोषद से दूसरे में ले जाने का काम करते हैं। अनेक पादप विषाणु बीजों द्वारा, भूमि में जड़ों के सम्पर्क से या पत्तियों की परस्पर रगड़ से फैलते हैं। जन्तुओं में ये थूक, कफ, साँस आदि द्वारा फैलते हैं।
सूक्ष्म जीव

विषाणु सजीव हैं या निर्जीव


    विषाणु को सजीव माना जाये या निर्जीव? स्योंकि इसमें दोनों ही के लक्षण होते है | 

विषाणुओं के निर्जीव लक्षण


1. प्रत्येक विषाणु में केवल प्रोटीन खोल में बन्द एक न्यूक्लीक अम्ल (DNA) या RNA-दोनों कभी नहीं) का अपु होता है। 
2. इन्हें बड़े-बड़े रवों (crystals) में जमाकर, निर्जीव पदार्थ की भाँति, वर्षों तक बोतलों में भरकर रखा जा सकता है। इससे इनके गुणों में कोई फर्क नहीं पड़ता। 
3. ये कोशिका रूपी नहीं होते, क्योंकि इनमें कोशिकाद्रव्य, कोशाकला एवं अंगक आदि नहीं होते। 
4. सजीव कोशाओं के बाहर कृत्रिम पोषक पदार्थों पर वाइरसों को सक्रिय बनाने के सभी प्रयास विफल हो चुके हैं।
5. स्वतन्त्र विषाणु पोषण और श्वसन नहीं करते, क्योंकि इनमें एन्जाइम नहीं होते। 

वाइरसों के सजीव लक्षण


1. इनके न्यूक्लीक अम्ल, सजीव कोशा ब्लीनिक अम्लों की भाँति, अपने ही अनुकूल प्रोटीन्स के संश्लेषण को प्रेरित करके वाइरस बनाते हैं।
2. किसी सजीव कोशा के द्रव्य में पहुँचते ही इनका न्यूक्लीक अम्ल सूत्र, अपने ही प्रकार के पदार्थ के संश्लेषण को प्रेरित करता है। कहते हैं कि इस सक्रिय प्रावस्था में एक ग्राम विषाणु पंच वयस्क मानव शरीरों के बराबर ऊर्जा रूपान्तरण कर देते हैं।
3. इनके न्यूक्लीक अम्ल के स्वगुणन में वैसे ही जीन-उत्परिवर्तन (genemutation) होते हैं, जैसे साधारण सजीव कोशाओं के क्रोमोसोम्स में।
Kkr Kishan Regar

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