प्रकाश संश्लेषण
(Photosynthesis)
Prakaash Sanshleshan ki kriya
नमस्कार प्रिय मित्रों,
आज के इस लेख में हम आपको बताने जा रहे है प्रकाश संश्लेषण की क्रिया क्या है ? प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे-
परिचय (Introduction)
हरे पौधे, सूर्य (देवता) की प्रकाश ऊर्जा का उपयोग करोड़ों वर्षों से करते आ रहे हैं। इन पौधों के शरीर में प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग होकर विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थों का निर्माण होता है। इस क्रिया को प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis) कहते हैं, क्योंकि उसमें प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग होकर पदार्थों का संश्लेषण होता है। इस क्रिया में हरित लवकों (Chloroplast) में स्थित क्लोरोफिल तथा कुछ अन्य वर्णक (Pigments) सूर्य प्रकाश की ऊर्जा को अवशोषित (Absorb) करते हैं। यह ऊर्जा, CO2 तथा जल (H2O) को उपयोगित करके कार्बोहाइड्रेट (शर्करा) पदार्थ बनाती है, जिनमें रासायनिक ऊर्जा संचित हो जाती है। इस तरह सूर्य प्रकाश की ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट पदार्थों में पहुँच जाती है। अतः प्रकाश-संश्लेषण वास्तव में प्रकाश-ऊर्जा (Light energy) को रासायनिक स्थितिज ऊर्जा (chemical potential energy) के रूप में परिवर्तन करने वाली प्रक्रिया है। अतः प्रकाश-संश्लेषण की परिभाषा निम्न है-
प्रकाश-संश्लेषण (photosynthesis) वह क्रिया है, जिसके द्वारा हरे पौधों के हरे क्लोरोफिल-युक्त कोशिकांगों में, प्रकाश की ऊर्जा अवशोषित होकर, कार्बन डाइ ऑक्साइड (CO2) को जल या किसी अन्य हाइड्रोजन दाता की उपस्थिति में अपचयित (reduce) करती है और पहले कार्बोहाइड्रेट वर्ग के पतार्थों का संश्लेषण करती है। उच्च श्रेणी के हरे पौधों में हाइड्रोजन दाता जल (H2O) के अणु और जीवाणुओं में हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S) के अणु होते हैं तथा इन दोनों में वायु की (CO2) का उपयोग होता है। उच्च हरे पौधों में इस क्रिया का सारांश समीकरण है
prakaash sanshleshan ki kriya |
प्रकाश संश्लेषण क्रिया पौधों की हरित लवक-युक्त कोशिकाओं में होती है, जो अधिकांश जीवाणुओं और कवकों को छोड अन्य सभी वर्ग के पौधों में मिलती है। ऐसी कोशिकाएँ हरी पत्तियों में मुख्य रूप से होती हैं। अतः पत्तियों को भोजन-निर्माण का कारखाना कहा जाता है। पौधों की इस पोषण विधि को पादप-सम (holophytic) पोषण कहते हैं। यह क्रिया अधिकतर जीवाणुओं, कवकों एवं जन्तुओं में नहीं होती, परन्तु ये जीव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हरे पौधों पर ही भोजन गप्त करने के लिए निर्भर रहते हैं। बिना पौधों के जन्तुओं का जीवन असम्भव या कठिन है। पौधों की इस क्रिया का प्रकृति में अति महत्त्व हैं, क्योंकि अपने उपयोग में आने वाली वस्तुओं (भोजन, कपड़ा, तेल, ईंधन, लकड़ी या काष्ठ, फर्नीचर इत्यादि) के लिए हम पौधों पर निर्भर करते हैं। करोड़ों वर्षों पूर्व के पौधे, जो मर कर जमीन में दब गये हैं, उनके संचित कार्बनिक पदार्थ कोयला, पेट्रोल, तेल, गैस आदि रूपों में परिवर्तित हो गये। इन्हें आज हम खोदकर निकालते हैं और इनमें संचित ऊर्जा को ज्वलन (conbustion) द्वारा निकालकर अपनी मोटरें, मशीनें, कारखाने, हवाई जहाज, अन्तरिक्ष यान आदि चलाते हैं।
Prakaash Sanshleshan ki kriya
अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग 70 अरब मीट्रिक टन वायु की कार्बन प्रकाश संश्लेषण में भाग लेती है। निम्न समीकरण इस सम्बन्ध में है
prakaash sanshleshan ki kriya |
उपरोक्त क्रिया में पृथ्वी पर गिरने वाले सौर प्रकाश का लगभग 1/2000 भाग ही रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित होता है। पृथ्वी पर कुल प्रकाश-संश्लेषण का लगभग 70 प्रतिशत भाग स्थलीय वनस्पति द्वारा, 25 प्रतिशत भार महासागरों में और 5 प्रतिशत भाग स्वच्छ जलीय जलाशयों में शैवालों द्वारा किया जाता है।
Prakaash Sanshleshan ki kriya
प्रकाश-संश्लेषण की खोज का संक्षिप्त इतिहास
(History of Discoveryof Photosynthesis)
अरस्तू (Aristotle) के समय से (384-322 B.C.) ही यह धारणा थी कि पौधे केवल मिट्टी के पदार्थों से ही अपना शरीर बनाते हैं। इसे “Humus Theory" कहते थे |
वॉन हेलमोण्ट (Van Helmont, 1557-1644) ने एक प्रयोग के आधार पर यह बताया कि पौधे मिट्टी से केवल जल सोखकर अपनी वृद्धि करते हैं। इन्होंने विलो (willow) के छोटे पौधे को (5 पौंड भार का) एक गमले में लगा दिया। गमले की मिट्टी का भार ज्ञात कर लिया जो 200पौंड था। वे उस गमले को पाँच वर्ष तक केवल वर्षा के जल से सींचते रहे। पौधा बढ़कर 169 पौंड भार का हो गया, परन्तु मिट्टी के भार में केवल 2 औंस की कमी हुई। अत: उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जल के कारण ही पौधे का शरीरबढ़ा न कि मिट्टी से। परन्तु बाद में जॉन वुडवर्ड (J. Woodward, 1699) ने बताया था कि पौधों का वजन बढ़ाने में जल के साथ-साथ मिट्टी के पदार्थ भी मदद करते हैं। स्टीफन हेल्स (Stephan Hales, 1727) ने जो 'कार्यकी के पितामह' (Father of Pland Physiology) कहलाते हैं, सर्वप्रथम कहा था कि हरे पौधे पत्तियों द्वारा पोषण पाते हैं और इसमें वायु और सूर्य प्रकाश का उपयोग होता है।
prakaash sanshleshan ki kriya |
Prakaash Sanshleshan ki kriya
जोसेफ प्रीस्टले (J. Priestley) ने 1772 में प्रयोगों द्वारा देखा कि बन्द बेलजार में एक जीवित मेंढक रखने से वह थोड़ी देर बाद मर जाता था और बन्द बेलजार में जलती हुई मोमबत्ती रखने से भी वह थोड़ी ही देर में बुझ जाती थी। अनुमान लगा कि बन्द जार में शायद अशुद्ध वायु (impure air) उत्पन्न हुई थी। जब बन्द बेलजार के अन्दर 10 दिन तक पोदीने (mint) का एक हरा पौधा भी रखा गया तो उसमें मेंढक जीवित रहता था। यह बात केवल प्रकाश में होती थी, परन्तु अन्धकार में नहीं। कारण बताते हुए कहा गया कि हरे पौधे प्रकाश में अशुद्ध वायु (impure air) को शुद्ध कर देते जॉन ईन्गेन हाउस (J. Ingen Housz) ने 1779 में प्रीस्टले के प्रयोगों को दोहराया। उन्होंने देखा कि पौधों के हरे भाग सूर्य प्रकाश में वायु को शुद्ध करते हैं, परन्तु अन्धेरे में पौधे के सभी भाग वायु को अशुद्ध करते हैं। इस तरह प्रकाश और पौधे के हरे भागों का महत्त्व स्पष्ट हुआ था।
Prakaash Sanshleshan ki kriya
जीन सेनेबियर (Jean Senebier, 1782) ने बताया कि हरे पौधे प्रकाश के प्रभाव में "fixed air" (=CO2) को ग्रहण करते हैं और उसमें से (O2) उत्पन्न करके वायु का शुद्धीकरण करते हैं। दूषित वायु में (CO2) का पता लैवोजियर (Lavoisier, 1782) ने लगाया था और उन्होंने ही प्रकाश-संश्लेषण में ऑक्सीजन (O2) का उत्पन्न होना बताया। थियोडोर-डि-सास्योर (Theodore de Sassure, 1804) ने हरे पौधों का जीवन, (CO2) और जल (H2O) के उपयोग पर निर्भर होना बताया। उन्होंने हरे पौधों में दो क्रियाएँ स्पष्ट की एक जिसमें प्रकाश की उपस्थिति में CO2 का उपयोग होकर O2 उत्पन्न होती है और दूसरी जो अन्धकार में O2 का उपयोग करके CO2 उत्पन्न करती है। उन्होंने बताया कि प्रकाश-संश्लेषण में उपयोगिता CO2 और उत्पन्न O2 की मात्राएँ समान होती हैं।
prakaash sanshleshan ki kriya |
पेलेटियर तथा केवेन्टयू (relletier and Caventou, 1818) ने पौधों के हरे रंग को एल्कोहल में निष्कर्षित किया और उसे chlorophyll (क्लोरोफिल) (= पर्णहरिम) नाम दिया। ड्यूट्रोचेट (Dutrochet, 1837) ने प्रकाश-संश्लेषण में क्लोरोफिल की अनिवार्यता पर बल दिया। सन् 1845 में जूलियस रॉबर्ट मेयर (Julius Robert Mayer) ने ऊर्जा संरक्षण के नियम (Law of Conservation of Energy) को प्रकाश-संश्लेषण यौगिक बनने से नीला रंग प्रकट होता है। कुछ समय तक (दो दिन) अंधकार में रखे पौधों में मण्ड नहीं बनता है, अत: ऐसे पौधों की पत्तियों में आयोडीन अभिकर्मक से नीला रंग प्रकट नहीं होगा।
Prakaash Sanshleshan ki kriya
prakaash sanshleshan ki kriya |
(B) प्रकाश-संश्लेषण में ऑक्सीजन उत्पादन
(Oxygen Evolution in Photosynthesis)
Prakaash Sanshleshan ki kriya
प्रयोग 2-प्रकाश-संश्लेषण में ऑक्सीजन उत्पादन का प्रदर्शन (Oxygen Evolution in Photosynthesis)-इस प्रयोग के लिए किसी जलीय पौधे जैसे हाइड्रिला (Hydrilla) या इलोडिया (Elodea) को लेते हैं।
Hydrilla पौधे की कुछ पत्ती-युक्त डंठलों को एक लीटर वाले एक बीकर में उल्टा कर रखी हुई कीप के मुँह से ढककर रखा जाता है। बीकर में नल का साधारण जल इतना भरते हैं कि पौधा, कीप तथा उसकी नली जल-मग्न हो जाये। जल में लगभग एक ग्राम पोटेशियम बाइकार्बोनेट (KHCO3) भी डाल देते हैं, जो आयनित होकर HCO3 आयन बनायेगा, जिसे पौधा प्रकाश-संश्लेषण के लिए अवशोषित करेगा। अब एक परखनली को जल से भरकर उसके मुँह को अंगूठे से बन्द करके, उसे कीप की नली के सिरे पर सावधानी से उलटकर (यह ध्यान रखकर कि परखनली का मुँह जल के नीचे रहे ताकि वायु का बुलबुला अन्दर न घुसने पाये) चित्रानुसार खड़ा कर देते हैं। इस तरह वायुदाब के कारण परखनली में जल भरा और सधा रहता है।
Prakaash Sanshleshan ki kriya
उपकरण को प्रकाश में रखते हैं। यदि प्रकाश-संश्लेषण क्रिया होगी तो प्रायोगिक पौधे से ऑक्सीजन (O2) गैस के बुलबुले निकलकर परखनली में ऊपर की ओर चलकर सिरे पर एकत्र होंगे और परखनली में जल का तल नीचे दबेगा। जितनी तेजी से प्रकाश संश्लेषण क्रिया होगी उतनी ही अधिक मात्रा में, यह गैस परखनली में एकत्र होगी और जल के तल को नीचे दबायेगी। यह गैस ऑक्सीजन है, इसका परीक्षण करने के लिए, यदि हम उस परखनली को सावधानीपूर्वक कीप के सिरे पर से हटाकर उसमें एक सुलगती हुई लकड़ी की तीली (जैसे माचिस की तौहीन या ज्वाला-रहित, परन्तु जलती हुई तीली) प्रवेश करेंगे तो उस तीली में ज्वाला या लौ उत्पन्न होगी, जो साधारणतया ऑक्सीजन की उपस्थिति से होता है। दूसरा परीक्षण यह है कि परखनली में थोड़ा-सा रंगहीन पाइरागैलोल (pyrogallol) घोल डालने से वह ऑक्सीजन सोखकर भूरे रंग का हो जाता है।
prakaash sanshleshan ki kriya |