फेसियोला हिपेटिका के जीवन चक्र Structure of Fasciola

फेसियोला हिपेटिका के जीवन चक्र में लार्वा अवस्था


फेसियोला हिपेटिका उभयलिंगी जन्तु है, लेकिन इसमें पर-निषेचन पाया जाता है। निषेचित अण्डों के चारों ओर पीतक कोशिकाएं एकत्रित हो जाती हैं व इनके चारों ओर एक कवच का निर्माण हो जाता है। अब इसे अण्डकवच कहते हैं। अण्डकवच भेड़ के मल से होकर बाहर आ जाता है व अगला परिवर्धन जल में होता है। अण्डकवच के भीतर मिरासिडियम लार्वा का निर्माण हो जाता है। मिरासिडियम लार्वा कवच को तोड़कर जल में तैरने लगता है।

(i) मिरासिडियम लार्वा-

यह फै. हिपेटिका की प्रथम लार्वा अवस्था है। इसके अग्रसिरे पर शीर्षस्थ पैपीला पाया जाता है। इसे छोड़कर सम्पूर्ण शरीर पर सिलिया पाए जाते हैं। शरीर पर पांच वलय में व्यवस्थित प्लेट्स पायीं जाती हैं इन्हें एपिडर्मल प्लेटस कहते हैं।


मिरासिडियम लार्वा

इनक नीच पेशी स्तर पाया जाता है। इसमें बाहर का ओर वतुल पेशियों व भातर की ओर अनुदैर्ध्य पेशियां पायी जाती है। पेशीय स्तर के नीचे उप-उपकला स्तर पाया जाता है। शीर्षस्थ पैपीला के मध्य में एक शीर्षस्थ ग्रन्थि व एक जोड़ी भेदक ग्रन्थियां पायी जाती है। शीर्षस्थ ग्रन्थि के स्त्रावण द्वारा यह घोंघे से चिकता है व भेदक ग्रन्थि का स्त्रावण भेदन में सहायता करता हो इसमें एपिडर्मल प्लेटस की दूसरी पंक्ति के नीचेx-आकार का मस्तिष्क पाया जाता है। मस्तिष्क में एक जोड़ी नेत्र बिन्दु पाए जाते है। इस लार्वा में एक जोड़ी ज्वाला कोशिकाएं पायी जाती है। पश्च भाग में जनन कोशिकाओं के समूह पाए जाते हैं। यह घोंघे में प्रवेश करने के बाद अगली लार्वा अवस्था में बदल जाता है। यदि 24 घण्टे में घोंघे के सम्पूर्क में नहीं आता है तो इस लार्वा की मृत्यु हो जाती

(ii) स्पोरोसिस्ट लार्वा-

यह फे. हिपेटिका की दूसरी लार्वा अवस्था है। यह घोंघे की पाचक ग्रन्थि में पायी जाती है। यह थैले के समान होती है। इसकी देह भित्ति में क्यूटिकल पायी जाती है। इसमें 2 जोड़ी ज्वाला कोशिकाएँ पायी जाती है। इसके पश्च भाग में जनन कोशिकाओं के समूह पाए जाते हैं। इससे एक स्पोरोसिस्ट में 6-8 रेडिया लार्वा का निर्माण होता है। स्पोसिस्ट को तोड़कर रेडिया लार्वा स्वतन्त्र हो जाता है।
स्पोरोसिस्ट लार्वा-


(iii) रेडिया लार्वा-

यह फे. हिपेटिका की तृतीय लार्वा अवस्था है। यह घोंघे में परजीवी के रूप में पायी जाती है। यह दीीकत व बेलनाकार होती है। इसमें मुख, ग्रसनीव आन्त्र पायी जाती है। ग्रसनी ग्रन्थियां पायी जाती हैं। इसमें अनेक ज्वाला कोशिकाएँ पायी जाती है। अग्र सिरे की ओर एक पेशीय वलय पायी जाती है जिसे कॉलर कहते हैं। कॉलर के नीचे एक ओर जन्म छिन्द्र पाया जाता है। इस छिद्र से होकर रडिया द्वारा उत्पन्न लार्वा बाहर निकलते हैं। पश्च भाग में एक जोड़ी प्रवर्ध के रूप में लेपेट्स पाए जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु में इसकी जनन कोशिकाओं द्वारा रेडिया का निर्माण | होता है व सर्दियों में रेडिया द्वारा सरकेरिया का निर्माण होता
सरकेरिया लार्वा

(iv) सरकेरिया लार्वा-

यह फे. हिपेटिका की चतुर्थ लार्वा अवस्था है। यह स्वतन्त्रता पूर्वक | पानी में तैरते रहते हैं। इसमें वयस्क के समान अनेक रचनाएं पायी जाती हैं।
सरकेरिया लार्वा-


-मुख चूषक, एमीटेब्यूलम, ग्रसनी, ग्रसिका व द्विशाखित आन्त। देहभित्ति के नीचे अनेक |एक कोशिकीय पुट्टीजनक कोशिकाएं पायी जाती है। इस लार्वा में अनेक ज्वाला कोशिकाएं पायी जाती हैं जो अपनी ओर की उत्सर्जी नलिका में खुलती हैं। दोनों ओर की उत्सर्जी नलिकाएं एक उत्सर्जी आशय में खुलती हैं। उत्सर्जी आशय से एक नलिका निकलकर दो उत्सर्जी छिद्रों द्वारा पूंछ पर खुलती है। घोंघे से बाहर निकलकर यह पूंछ द्वारा जल में तैरती है। इसके बाद यह पत्तियों में चिपक जाती है वह पूंछ विलुप्त हो जाती है। पुट्टीजनक ग्रन्थियों द्वारा इसके चारों ओर सिस्ट का. स्त्रावण हो जाता है। वह यह मेटासरकेरिया में बदल जाता है।

(v) मेटासरकेरिया लार्वा-

यह फे. हिपेटिका की अन्तिम लार्वा अवस्था है। यह प्राथमिक परपोषी के लिए संक्रामक है। यह जल में घास या पत्तियों से चिपका रहता है। यह गोलाकार होता है। इसके चारों ओर सिस्ट पायी जाती है। वयस्क के समान मुखीय चूषक व एसिटाब्यूलम पाया जाता है। आहारनाल मुख, ग्रसनी, ग्रसिका व द्विशाखित आन्त्र द्वारा निर्मित होती है। इसमें अनेक ज्वाला कोशिकाएं पायी जाती है। भेड़ में पहुँचकर यह आन्त्रीय रस द्वारा प्रभावित होती है व आन्त्रीय रस सिस्ट का पाचन कर देता है। आन्त्र से होकर यह पित्तवाहिनी तक पहुँचकर वयस्क में रूपान्तरित हो जाता है।
मेटासरकेरिया लार्वा

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