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टिड्डे का जीवन वृत्त तथा आर्थिक महत्व

टिड्डे का जीवन वृत्त तथा आर्थिक महत्व


टिड्डे का जीवन वृत्त का वर्णन करते हुए टिड्डे का आर्थिक महत्व बताईये।

टिड्डे का जीवन-वृत्त (Life Cycle of Grasshopper) 

1. मैथुन (Copulation)-

ग्रीष्म ऋतु में नर और मादा के बीच मैथुन होता है। नर टिड्डा मादा टिड्डे की कमर पर चढ़ कर शुक्राणुधारी शुक्र-रस को विसर्जित करने के लिये उसकी योनि में अपने शिश्न का प्रवेश करा देता है। इस प्रकार विसर्जित शुक्राणु शुक्र-ग्राही में इकट्ठे हो जाते हैं और अरस्थाई रूप से संचित रहते हैं। यहाँ ये योनि से गुजरते हुए अण्डों में निषेचन क्रिया. करने की प्रतीक्षा करते है। मादा द्वारा अण्डे देना आरम्भ करने से पूर्व संगम या मैथुन कई बार हो सकता है। 12. निषेचन (Fertilization)-अण्डाहिनी में नीचे की ओर गुजरता हआ परिपक्व अण्ड 3 से 5 मिमी लम्बा होता है। इसमें पीतक होता है और एक पतली आन्तरिक पीतक झिल्ली (vitelline membrane) तथा एक दृढ़ भूराभ बाहरी कवच (shell) या जरायु (chorion) से ढका रहता है। शुक्र ग्राहिका से आने वाला शुक्राणु जरायु (chorion) में एक छोटे छिद्र, अण्डद्वार (micropyle) से होकर अण्डे में प्रवेश करता है। शुक्राणु का केन्द्रक अण्ड के केन्द्रक से संगलित हो जाता है और अण्ड की परिधि के चारों ओर एक कोरक चर्म (blastoderm) बन जाती है, जिससे एक भ्रूण का विकास होता हैं।

टिड्डे कितने प्रकार के होते हैं?
टिड्डी कहाँ से आये?
टिड्डी के काटने से क्या होता है?
टिड्डा के कितने पैर होते हैं?

3. अण्डनिक्षेपण (Oviposition)-

मैथुन के पश्चात् थोड़ी-थोड़ी देर बाद अण्डे देने की क्रिया आरम्भ होती है और हेमन्त ऋतु (autumn) तक चलती रहती है। मादा अपने अण्ड-निक्षेपक से पृथ्वी में एक छोटी सुरंग बनाती है, जिसमें लगभग 20 अण्डों का एक गुच्छा निक्षेपित कर दिया जाता है। ये अण्डे एक चिपकने वाले स्त्राव द्वारा परस्पर चिपक कर अण्ड-कली (egg-pod) बनाते हैं। अकेली एक मादा 10 गुच्छों में लगभग 200 अण्डे दे सकती है। मैथुन और अण्ड-उत्पत्ति के कुछ दिन बाद माता-पिता की मृत्यु हो जाती है।

4. परिवर्धन (Development)-

सका भ्रौणिक परिवर्धन लगभग तीन सप्ताह तक चलता है। तीन सप्ताह तक चलता है। तीन सप्ताह के बाद परिवर्धन रुक जाता है और भ्रूण एक विश्राम काल या डाइपौस (diapause) में प्रवेश कर जाता है, जिससे वह शरदकालीन प्रतिकूल परिस्थितियों एवं भोजन की कमी के समय को सुरक्षित रहकर गुजार सके। बसन्त ऋतु आने पर भ्रूण में फिर से वृद्धि होने लगती है और शिशु ड्डिा , जिसे अर्भक (nymph) कहते हैं, अण्डे से बाहर निकलता है। यह वयस्क टिड्डे का ही एक छोटा रूप होता है जिसका सिर अपेक्षाकृत बड़ा होता है और पंखों तथा जननांगों का अभाव होता है। यह पौधों को खाता हुआ शीध्रता से वृद्धि करता है। परन्तु शरीर की शीघ्र वृद्धि के साथ्न इसका अप्रत्यास्थ (inflexible) काइटिनी बहिःकंकाल अधिक नहीं खिंच सकता, इसलिए यह समय-समय पर उतार दिया जाता है। इस जटिल प्रक्रिया को निर्मोचन (moulting) या निर्मोक-उत्सर्जन (ecdysis) कहते हैं। बाह्य-पंख गद्दियों से धीरे-धीरे पंखों का विकास हो जाता है और पाँच या छः निर्मोचनों के पश्चात् शिशु-टिड्डा एक पूर्ण वयस्क हो जाता है। इस प्रकार का परिवर्धन क्रमिक कायान्तरण (gradual metamorphosis) कहलाता है जैसा कि कॉकरोच में भी देखा गया हैं।

टिड्डे का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Grasshopper)


1. फसलनाशक के रूप में (As crop pests)-

अर्भक और वयस्क दोनों विविध प्रकार के पौधों, विशेषकर रसीले पौधों को खाते हैं। टिडिडयाँ भोजन के नये-नये स्थानों में प्रवास करती हैं और खेत तथा बाग के पौधों को हानि पहुँचा सकती हैं। प्रवासी टिड्डी, लोकस्टा माइग्रेटोरिआ (Lacusta migratoria) बाइबिल के समय से वर्तमान तक कितनी ही बार अकाल उत्पन्न कर चुकी है। भोजन की कमी के समय में टिड्डियाँ सूती एवं ऊनी कपड़ों, लकड़ी और यहा तक कि अपने अपंग साथियों को भी खा जाती है। घास को खाकर टिड्डियाँ उद्यानों एवं चरागाहों को भारी हानि पहँचाती हैं। टिड्डों और टिड्डियां द्वारा प्रतिवर्ष फसल को कई करोड़ रुपये की हानि होती है। 

2. भोजन के रूप में (As Food)-

टिड्डों के अण्डे, अर्भक और वयस्क कितने ही परभक्षी कीटों, मकड़ियों मेंढकों. सरिसपों, पक्षियों और स्तरियों द्वारा खाये जाते हैं। ये जीवित या मृत दोनों ही अवस्थाओं में एक अच्छे मछली-प्रलोभक की भाँति प्रयोग किये जाते है। इन्हें कभी-कभी मनुष्य के भोजन की भाँति भी प्रयोग किया जाता है। ये मैक्सिकों, जापान और फिलीपीन में लगातार भोजन के लिये प्रयोग किये जाते हैं। अमेरिकन इण्डियन और विश्व के अन्य भागों के आदिवासियों द्वारा भी इन्हें सामान्यतः खाया जाता है। 1875 में जब इनके विनाशकारी झुण्डों द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका पर आक्रमण किया गया तो झुण्डों द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका पर आक्रमण किया गया तो लोगों को इन्हें उबाल कर, भूनकर या तलकर खाने की सलाह दी गई थी।

3. मध्यस्थ परपोषी के रूप में (As intermediate host) 

कुछ विशेष प्रकार के फ्लूक और गोल कृमि टिड्डों पर आक्रमण करते हैं, जो इन परजीवियों के लिए म यस्थ-परपोषी की भाँति कार्य करते हैं। जब इन टिड्डों को कफछ पक्षियों द्वारा खाया जाता है तो ये परजीवी अपने कशेरूकी परपोषियों में पहुँच जाते हैं।

टिड्डों पर नियन्त्रण (Grasshopper's Control)


(i) टिडिडयों को भोजन में आर्सेनिक या कोई अन्य कीट-विष देकर मारना, टिड्डियों के नियन्त्रण की पुरानी विधि थी। आजकल विविध प्रकार के कीटनाशकों का रासायनिक छिड़काव या धूल या विषैले प्रलोभकों की भाँति प्रयोग किया जाता है। जिनके सम्पर्क में आने पर या जिन्हें खाने पर टिडड़े मर जाते है। वर्तमान समय में प्रयोग की जाने वाली कुछ कीटनाशक ओषधियाँ-बी.एच.सी. (B.H.C.) एल्ड्रीन (aldrin), क्लोरडैन (chlordane), डाइएल्ड्रिन (dieldrin), हेप्टाक्लोर (heptachlor) एवं टॉक्साकीन (toxaphene) हैं। मेथॉक्सीक्लोर (methoxychlor) का अवशेष भाग मनुष्य या घरेलू जन्तुओं के लिए हानिकारक नहीं होता अतः कलों, सब्जियों ओर चरागाहों को टिड्डियों से सुरक्षित रखने के लिए उत्तम है। 

(ii) खरपतवार (weed) तथा शेष बचे दूंठों से भरे खेतों को जोतने से टिड्डियों के अण्डों के ढेर एवं अर्भर ऊपर आकार सूर्य के प्रकार में खुल जाते हैं। 

(iii) वे परजीवी कीट, जो डिडों के अण्डों अर्भकों एवं वयस्कों पर अपने अण्डे या आरवे निक्षेपित करते हैं, भी टिड्डों के नियन्त्रण के कारण की भाँति कार्य करते हैं। 

(iv) कवक एवं जीवाणु जनित रोगों से भी टिड्डियों की बड़ी संख्या मर जाती है 

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Kkr Kishan Regar

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