कीटों का मुखांग | Mouthparts of Insects

कीटों के मुखांग का वर्णन कीजिए।


कीटों के मुखांग (Mouthparts of Insects)-

विविध प्रकार के कीट जन्तुओं के पौधों से भिन्न-भिन्न विधियों द्वारा भोजन प्राप्त करते हैं। अतः उनके मुखांग इन विधियों के अनुकूल रूपान्तरित हो जाते हैं। युग्मित उपांग चिबुक (mandibles) और जम्भिका (maxillary) एवं लेबियमी सिर खण्ड के प्रमुख मुखांग होते हैं। ये विविध । प्रकार के रूपों में विकसित हो गये हैं, जो उनके विशिष्ट अशनी स्वभाव के लिए सर्वदा उपयुक्त हैं। प्रमुख प्रकार के कीट मुखांग निम्नलिखित हैं

(I) कंतक एवं चर्वणक प्रकार (Biting and chewing type)-

काटकर चबाने वाले मुखांग अत्यन्त आदिकालीन एवं अविशिष्ट होते हैं और उद्विकास क्रमें प्रारम्भिक कीटों में भी पाये जाते थे। इस प्रकार के मुखांगों में एक लेबम (labrum) या ऊपरी ओष्ठ, एक जोड़ी चिबुक (mandibles), युग्मित जम्भिकाएँ (maxillae) या प्रथम जोड़ी जम्भिकाएँ, लेबियम (labium) या द्वितीय जोड़ी जम्भिकाएँ या निचला ओष्ठ, अधिग्रसनी (epipharynx) और अधोग्रसनी (hypopharynx) होते हैं। 
    
    इनके जम्भिक स्पर्शक (maxillary paplps) भोजन को खोजने के लिए सम्वेदी स्पर्शकों की भाँति कार्य करते हैं। लेसीनिया (lacinia) प्रायः भोजन को पकड़ने और काटने या चबाने के लिये प्रयोग किये जाते हैं। माँसपेशियों के दो समुच्चयों (sets) की सहायता से गति करने वाले चिबुक अपने दाँत के समान प्रवों द्वारा भोजन को पीसते. हैं। ग्लॉसी (glossae) एवं पैराग्लॉसी (paraglossae) द्वारा निर्मित लिगुला (ligula) भोजन को ग्रसनी में धकेलने में सहायक होता है।

इस प्रकार के मुखांग ऑर्थोप्टेरन कीटों जैसे टिड्डों, तिलचट्टों तथा झींगरों में पाये जाते हैं। ये सिल्वर-किश या लेपिस्मा (Lepisma), इअरविगों, दीमकों, पुस्तक झुंओं, पक्षी जुओं, भृगों, कुछ हाइमनोप्टेरों और बहुत से लारवों विशेषकर लेपिडोप्टेरा रगण के कैटरपिलर लारवों में भी पाये जाते हैं।

(II) बेधक एवं चूषक प्रकार (Piercing and sucking type)-

इस प्रकार के मुखांग द्रव भोजन चूसने वाले कीटों में पाए जाते हैं। द्रव भोजन को अपने अन्दर खींचने तथा लार (saliva) को इन्जैक्ट करने हेतु ये विविध प्रकार से रूपान्तरित होकर एक नली का निर्माण करते हैं। इसके फलस्वरूप मुखांगों के कुछ भाग विकसित होकर लम्बे हो जाते हैं और कुछ विशिष्ट संरचनाएँ लुप्त हो जाती है। इसी प्रकार के मुखांग रुधिर चूषक कीटों, जैसे मच्छरों, खटमलों, किसिंग बगों (kissing bugs) और पौधों का रस पीने वाले शाकाहारी कीटों, जैसे एफिड, में पाये जाते हैं। इस प्रकार के मुखांगों में चिबुक और जम्भिकाएँ त्वचा या पौधे के ऊतकों को बेधने के लिए महीन सुइयों के समान हो जाते हैं। लेबियन एक खोखली खाँचदार वाहिका बनाता है, जिसके बन्दर महीन सुइयों के समान मुखांग बन्द रहते हैं। इस वाहिका की खाँच का ऊपरी खुला भाग लेब्रम द्वारा ढका रहता है। अधोग्रसनी खोखली सुई के समान हो जाती है, जिसके द्वारा लार बहती है|
    
    मच्छर के मुखांगों में एक लम्बा शुण्ड (proboscis) या चोंच होती है, जिसकी रचना लम्बी, माँसिल और मध्यपृष्ठ तल में खाँचदार नली समान लेबियम से होती है। इस नली के अन्दर चिबुकों, जम्भिकाओं और अधोग्रसनी के सूई के समान रूपान्तरित शूकिकाएँ बन्द रहती है। सूई के समान लेब्रम अधोग्रसनी के साथ संगलित हो जाता है और शुण्ड की खाँच के ऊपरी खुले तल का ढक्कन बनाता हैं। शुण्ड के सिरे पर दो छोटे-छोटे ओष्ठक या लेबिली (labellae) होते हैं जिनका उपयोग स्पर्शकों की भांति किया जाता है। ये मच्छर को अपने शिकार के सुयोग्य भाग का चयन करने में सहायक होते हैं। ये मुखांग मादा मच्छरों में सुविकसित होते हैं, क्योंकि वे रुधिर ही चूसते हैं।

    खटमल में लेबियम तीन जोड़ों वाला एक शुण्ड बनाता है। चार शूकिकाओं में दो चिबुक (mandibles) और दो जम्भिकाएँ (maxillae) सम्मिलित होती है। चिबुकों के सिरे ब्लेड की भाँति और जम्भिकाओं के सिरे आरी के समान होते है। लैब्रम (labrum) एक पल्ले के समान संरचना होती है, जो शुण्ड की खाँच के केवल आधार को ढके रहता है। चारों शुकिकाआवें में से जम्भिकाएँ अन्दर की ओर दोहरी खाँचदार होती है, जिनमें से एक खाँच रुधिर पीने के लिये भोजन नली की भाँति और दूसरी लार रस के प्रवाह के लिये लार नली (salivary canal) की भाँति कार्य करती है।

(III) चर्वण एवं लेहनकारी प्रकार (Chewing and lapping type)-

इस प्रकार के मुखांग मधुमक्खियों तथा बम्बिल मक्खियों (bumble bees) में पाये जाते हैं। इन मुखांगों में एक लम्बी जिह्वा होती है, जिसका निर्माण लेबियम (labium) के ग्लॉसी (glossae) से होता है और जिसके सिरे पर चम्मच के आकार का एक ओष्ठक (labellum) या व्यंजनक (flabellum) होता है। जम्भिकाओं की गैलियों (galeae) ब्लेड के समान संरचना बनाती हैं और जम्भिक स्पर्शक अति छोटे हो जाते हैं। शुण्ड, गैलियों एवं लेबियनी स्पर्शकों (labial palps) के परस्पर मिलने से एक अस्थाई भोजन वाहिका बन जाती है। इस अस्थाई भोजन वाहिका से होकर द्रव भोजन ऊपर चढ़ता है और इस क्रिया में ग्रसनी की पम्पिंग क्रिया सहायक होती है। लेब्रम एवं चिबुक भोजन को चबाने का कार्य करते हैं।

(IV) स्पन्जिंग या स्पंजी प्रकार (Sponging type)-

इस प्रकार के मुखांग द्रवीभूत भोजन को चूसने के लिये गृहमक्खी तथा कुछ अन्य मक्खियों में पाये जाते हैं। इनमें भोजन को काटकर चबाने वाले भागों का अभाव होता है। अत: चिबकों का बिल्कल अभाव हो जाता है जबकि जम्भिकाओं के केवल दो जम्भिका स्पर्शक ही होते हैं।प्रत्येक जम्भिका स्पर्शक में केवल एक ही खण्डव होता है। लेबियम (labium) अत्यधि क रूपान्तरित होकर शुण्ड का निर्माण करता है, जिसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-
(i) शंकु के समान एक प्रारम्भिक तुण्ड (rostrum), जिसमें जम्भिक स्पर्शक होते हैं, 
(ii) मध्यवर्ती होस्टेलम (haustellum), जिसके मध्यपृष्ठ तल में भोजन-मार्ग का काम करने वाली खाँच और नीचे की ओर थीका (theca) नामक हृदय आकार एक प्लेट होती है, 
(iii) दूरस्थ ओष्ठक (labellum) या मुख-बिम्ब (oral disc), जिसमें फैली हुई दो पालियाँ या ओष्ठक (labellae) होते हैं। इसके अन्दर के भाग में असंख्य अपूर्ण बेलनाकार नालियाँ होती हैं, जिन्हें कूटश्वासनलियाँ (pseudotracheae) कहते हैं। 
    ये सब नलियाँ केन्द्र में संग्रहित होकर मुखछिद्र बनाती हैं जो भोजन खाँच में खुलता है। ओष्ठक अपनी संकुंचनशील क्रिया द्वारा भोजन को चाटने का कार्य करती है। भोजन को पहले कूटश्वास-नलिकाओं में इकट्ठा किया जाता है, जहाँ से यह लेबियम (labium), अधिग्रसनी (epipharynx) एवं अधोग्रसनी (hypopharynx) द्वारा निर्मित भोजन नली में पहुँच जाता है, जो होस्टेलम की मध्य पृष्ठ खाँच में स्थित रहती है।

(V) साइफनी या विनालीय प्रकार (Siphoning type) 

तितलियाँ एवं शलभ मध गुमक्खियों की भाँति पुष्पों से मकरन्द पान करने के अनुकूल होते हैं परन्तु इनके मुखांगों में मुख्य शुण्ड का निर्माण लेबियम से न होकर जम्भिकाओं से होता है। इनके मुखांगों में चिबुक एवं लेबियम अति समानीत होते है, जम्भिका स्पर्शक अवशेषी होते हैं और लेमियम एक त्रिभुजाकार प्लेट बनाता है, जिस पर लेबियमी स्पर्शक (labial palps) होते हैं। गैलिया अति लम्बी एवं कण्डलित हो जाती है, प्रत्येक नली का एक अर्धाश बनाती हैं और जब ये दोनों अर्धाश परस्पर जुड़ जाते हैं जो एक पूर्ण नली बन जाती है। जब शुण्ड प्रयोग में नहीं होती तो सिर के नीचे कुण्डलित रहती है, और जब कीट भोजन लेना चाहता है तो यह पुष्प के मकरन्द कोष (nectary) तक पहुँचने के लिये अकुण्डलित हो जाती है। रुधिर चाप (blood pressure) के बढ़ने से शुण्ड अकुण्डलित होकर सीध जी हो जाती है।

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